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________________ पुत्रियों को सिखलाया । बहत्तर ही विद्याएँ सिखला दी । अरहन्त के गुण, सिद्धों के सिद्धिदायक फल, आचार्यों की अलौकिक प्रतिमा, माँ सरस्वती की सम्पूर्ण विधा आदि सारस्वत दान करती हैं। इस महाकाव्य के सभी सन्मति (सर्ग) आत्मआलोक ही दार्शाते हैं । छन्दानुशीलन : कवि की कलात्मकता का छन्दों से ही बोध होता है। उन्होंने प्रथम सन्मति में अनुष्टुप छन्द का प्रयोग किया । (8 - 8, 8-8 ) इसी प्रथम सन्मति में हरिणी और मालिनी छन्द से इतिश्री की है। द्वितीय सन्मति का प्रारम्भ तारक छन्द से किया, इसमें 13 वर्ण एक चरण में होते हैं । इसके अनन्तर कवि का प्रिय छन्द वसन्ततिलका सभी सन्मति की शोभा बढ़ाता है । द्वितीय के अन्त में पादाकुलक, चन्द्रबोला छन्द दिया । मणोहंस से तृतीय, चतुर्थ का प्रारम्भ विद्याधर से इसमें भुजंगराशि, चित्रपदावृत्त, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति एवं छिन्नपदा का भी प्रयोग है । इसी अन्य सन्मति में रसिका, स्वागत, नील ( 7 ), विज्जोहा ( 8 ) शंखनारी (8) तिल्ल, चउरंसा, यमक (8) भुजंगप्रयात ( 9 वें) लच्छीधर, सारंग रूपक ( 9वें ) नाराच (10वें) पंकावली (10वें) बिम्ब, प्रज्ञा, सारंगिका ( 10वें) तिल्ल ( 11वें ) गीत (तुझं णमोत्थु ) ( 13वें) मन्द्राकान्ता ( 14वें) गीत ( 15वें) और अन्त में जयदु सम्मदी जयदु समदी ( गीत ) हैं । इस प्रकार महाकवि का यह काव्य कई कारणों से दिव्यता का सन्देश देता है । इसमें तत्त्व-चिन्तन, धर्म-दर्शन, इतिहास, स्थान, नगर, शास्त्र सम्मत विचार, आचारविचार, मुनिचर्या, आहार-विहार, यत्नाचार, आदि की दृष्टियाँ हैं । इसमें रत्नत्रय के सोपान-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र भी है । गुप्ति, समिति, परीषहजय एवं विभाव (विकार) परिणति के समाप्ति के कारण भी हैं । यह काव्य वैराग्यबुद्धि से राजित कैवल्य पथ का दिग्दर्शन भी कराता है । संसार की असारता से ऊपर उठने का प्रयत्न भी है। इसमें सुख-शान्ति का उपाय भी है। इसमें श्रेयस्कर मार्ग है । ध्यान और तप की विचार दृष्टि भी है । इसमें श्रेयस्कर मार्ग है। ध्यान और तप की विचार दृष्टि भी है । जगत् में अज्ञान - अन्धकार से घिरे हुए लोगों के लिए स्व-परप्रकाश सूत्र भी हैं और है आशीर्वाद तथा वस्तु निर्देश | नमोस्तु आचार्य भगवन्त कि आपका अनुशासित शिष्य आपके पट्ट पर विराजित आर्षमार्ग एवं संस्कृत भाषा के मूल ग्रन्थों, शास्त्रों एवं वचनों में प्रविष्ट होकर तपाचार, ज्ञानाचार, चरित्राचार आदि को पुष्ट कर रहा है । वे चारित्र शिरोमणि प्राकृताचार्य सुनीलसागर आर्षमार्ग के बोधक, शोधक एवं स्वयं के कृतित्व से प्राकृत (शौरसैनी प्राकृत) को इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी पुष्ट कर रहे हैं । प्राकृत के महाकवि का तो क्या कहना, वे जो भी प्राकृत में लिखते, वह पुनः नहीं लिखा जाता तेरह
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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