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________________ 11 आ अंग पंचविहचार चरे-सुसीमे आ आयरेज्जदि हु आसिवएदि सम्म। आचार पंच अणुपालग-आइरिज्जो गंभीर-धीर-उवएस-सुदेसु रत्तो । आ आङ् पूर्वक जो मर्यादा युक्त पंचविध आचार का आचरण करते, उसका सम्यक् पालन करते, पंचाचार परायण होते वे आचार्य होते हैं। वे धीर गंभीर एवं श्रुत उपदेश में रत रहते हैं। 12 पंचमहव्वय गिहे पण-सम्मिगो सो मेरु व्व धीर-अचलो गगण व्व वित्तं। आचार सज्जदि सदा खिदि सेज्ज सूरी आयार-णि? तव जुत्त इमो हु साहू॥12॥ वे सन्मति सागर, पंच महाव्रत रूपी निलय में स्थित, पंच समिति पालक, मेरु की तरह अचल, गगन की तरह विस्तृत क्षितिशयन वाले आचार एवं तप निष्ठ साधु सदा पंचाचार का आचरण करते हैं। मथुरा चाउम्मासो 13 आयारणि?-तव-संजम आणसीलो जंबूइ पावणथलिं महुरं च पत्ते। सम्मेदसेल अदिदूर मुणंत-सूरी बाहत्तरे हु चदुमास इथे कुणेदि॥13॥ अचार निष्ठ, तप, संयम एवं आज्ञाशील सूरी सम्मेदशिखर को दूर जानते हुए 1972 के चतुर्मास को मथुरा में करते हैं। जंबू स्वामी की निर्माण स्थली को प्राप्त होते हैं। 14 सो लोण मिट्ठ अणुचागि इगं च मासं मूगप्फलिं च असणे उववास-पुव्वं। तेल्लं दहिं घिद-रसं परिचागि एसो पच्छा हु दुद्ध असणं चदुमास-मासं॥14॥ 114 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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