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________________ वंशस्थ छंद 51 किमेस अप्पा लहदे सुहं हिदं, किमप्पहाकंत-दिणेस तेजसं। इमे ण तित्थे परमप्प-संपदं, जगत्तयालोक-सुसंत वंदणं ॥1॥ क्या ये तीर्थ जगत्रयालोक (त्रिभुवनपति के आलोक) से आलोकित सुखद शान्त पूज्य नहीं बनाते हैं? क्या ये परमात्म संपदा नहीं देते हैं? क्या यह आत्मा यहाँ पर प्रभाकान्त दिनेश के तेज रूप शुभ हित (परमहित) नहीं पाता? 52 भुजगशशि भृत-।।। sss = १ वर्ण मरकत-सरिसं पत्तं, मणिमय-धवलं चंदं। करकल-जिण-वंदणं, करि-करि लहि हुम्मच्चं ॥52॥ वे सन्मतिसागर करकल के जिन वंदन करके हुम्मच आए। यहाँ मरकत मणिमय सदृश धवल चंद्र प्रभु को प्राप्त हुए। चित्रपदावृतम्-51 53 तित्थ-इमे परमप्पे, तोसकरा भगवंता। झाण तवे सुदणाणे, णेय-णए सम-संता॥3॥ इन परमात्म के तीर्थ पर आनंद है, ये भगवंत, समत्व एवं शान्त रूप स्थान नय की ओर ले जाते हैं। ये ध्यान, तप एवं श्रुतज्ञान की ओर ले जाते हैं। ॥ इदि पंचम सम्मदी समत्तो॥ सम्मदि सम्भवो :: 99
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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