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________________ उत्कीर्ण करवा कर परमपावन जैनागमों का चिरकाल संरक्षित कर के श्री जैनागमों की अविच्छिन्नता चाहते थे। यह भावना सं. १९९३ में जामनगर के चातुर्मास में अंकुरित हुई और आखिर वे श्री चतुर्विध संघ के साथ यहाँ यात्रार्थ पधारे । सं. १९९४ की बैशाख वदी (उत्तर में जेठ वदी) दशमी के दिन श्री गिरिराज की तलहटी में उनकी भावना के अंकुर स्वरूप खात मुहुर्त हुआ। परम पूज्य आचार्य देव की आगमपरिणत देशना से अत्यल्प समय में ही सकल जैनागमों को संगमरमर की शिला में उत्कीर्ण करनेवालों तथा मुख्य मंदिर, चार दिशाओं के चार मदिर, परिक्रमा की चालीस देहरिया, अरिहतादि की प्रतिमाएँ तथा मंडल सहित श्री सिद्धचक्र मंदिर, सगणघर तीर्थंकरों के मूर्तिपट्ट तैयार करनेवालों के पुनीत नामों की सूचि बन गई और बहुत ही थोड़े समय में मंदिर, देहरिया, सिद्ध चक्र गणधर मंदिरादि सब भव्य प्रकार से बनकर तैयार हो गये हैं। उपर्युक्त भव्य मंदिरों में मुख्य मंदिर में शाश्वत चार तीर्थकर परमात्माओं के चौमुख बिंब तथा श्री सिद्धचक्र गणधर मंदिरमें अरिहंतादि पंचपरमेष्ठि की मूर्तिया तथा गणधर-मूर्तियोंवाले पट्टोंमें ऋषभदेवादि चौबीस तीर्थकर तथा आगमों का पुस्तकारूढ करनेवाले श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक के आचार्यों के पट्ट में श्री सुधर्मास्वाभीजी की प्रतिमा स्थापित करनी है । उक्त जिनबिबादि की अंजनशलाका शास्त्रीय विधिविधान से भव्य महोत्सवपूर्वक करवाने का निर्णय किया है।
SR No.032387
Book TitleAgamdharsuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherJain Pustak Prakashak Samstha
Publication Year1973
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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