SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३६ ये सन्त समाज को कई गुनी अधिक लाभकारी अक्षुण्ण शान्ति की राह दिखाते हैं। इनके श्रमणत्व की तुलना में आजीविकाधारियों का श्रम नगण्य है। श्रमणत्व अंगीकार करने हेतु प्रस्तुत इस चतुष्टयी में प्रव्रज्यापथिक हस्ती सर्वाधिक आकर्षण के केन्द्र थे। वे ऐसे सशोभित हो रहे थे जैसे सूर्य को लिए पूर्व दिशा जगत् को प्रकाशित करने चली हो। जनमेदिनी की आँखें तब ठहर सी गईं जब उन दीक्षार्थियों में बाल वैरागी हस्ती अपनी तेजस्वी अनुपम छटा बिखेरते हुए नजर आए। खेलने-कूदने की उम्र में भी सागरवत् गंभीर, अल्पवय में गहन चिन्तनशील, छोटे कद में भी चौड़े चमकते ललाट के धनी, कोमलकदमों वाले पर दृढ़ संकल्पी बाल हस्ती की अद्वितीय अध्यात्म मस्ती सभी का मन मोह रही थी। चारों मुमुक्षुओं ने परिजनों एवं उपस्थित सकल संघ से क्षमा याचना करते हुए दीक्षा हेतु अनुमति मांगी। परिजन जहाँ भारी मन से, पर अपने आपको सौभाग्यशाली समझते हुए अपने प्रिय जनों को गुरु चरणों में सदा सर्वदा के लिए समर्पित होने हेतु अनुमति प्रदान कर त्याग के इस महायज्ञ में श्रद्धा व समर्पण का अर्घ्यदान कर रहे थे, वहीं उपस्थित सकल जन-जन के साथ ही उनके रोम-रोम से अणु-अणु से यही भावना यही आशीर्वाद निसृत हो रहा था-"नाणेणं दंसणेणं च चरित्तेण तहेव य खंतीए मुत्तीए, वड्माणो भवाहि य” (उत्तराध्ययन सूत्र २२.२६) आप मुमुक्षु ज्ञान-दर्शनचारित्र आराधक उत्कट संयमधनी आचार्य श्री शोभा के मुखारविन्द से भवबन्धन काटने वाला संयम धन स्वीकार कर निरन्तर ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, क्षमा व मार्दव भाव में निरन्तर आगे बढ़ते रहें, आपकी उत्कट भावना व वैराग्य भाव निरन्तर वृद्धिगत होते रहें। आप शीघ्र अपने लक्ष्य मोक्ष हेतु अभीष्ट साधना कर इस भव-भय बन्धन की जंजीरों को तोड़कर कर्मों का मूलोच्छेद कर सिद्ध बुद्ध व मुक्त हों। आज इन मुमुक्षु आत्माओं के गुरु चरणों में सर्वतोभावेन समर्पण, संयम ग्रहण के इन क्षणों के साक्षी बनकर व रत्नत्रयाराधक आचार्य भगवन्त रत्लनिधि महापुरुषों के पावन दर्शन कर हम वस्तुत: धन्य-धन्य हैं।" ___हस्ती समेत चारों मुमुक्षु आचार्य श्री शोभा के समक्ष श्रद्धावनत विनयविनम्र होकर वन्दनपूर्वक दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना करने लगे। चतुर्विध संघ के पूज्य, मुमुक्षुचतुष्टयी के आराध्य, संघनायक आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म. भी अन्तर्हृदय से पुलकित थे, जिन्होंने बालहस्ती के भीतर अव्यक्त रूपेण विद्यमान धर्मनायक ऐरावत गजराज को पूर्व में ही परख लिया था। आचार्यप्रवर दीक्षार्थियों के परिजनों का लिखित आज्ञापत्र सुनकर, प्रव्रज्या हेतु तत्पर रूपादेवी, अमृतकंवर, चौथमल एवं स्वयं हस्ती के प्रार्थना स्वरों से गद्गद् हो सर्वप्रथम उन्हें भागवती दीक्षा का मर्म एवं महत्त्व समझाने लगे और यह अवसर था जब समस्त पाण्डाल एक स्वर से अनुमोदन की अभिव्यक्ति जय-जयकार से करने लगा। उन्होंने फरमाया -“दीक्षा वह संस्कार है जो शरीर जैसे नश्वर साधन से अविनश्वर आत्म-स्वभाव प्रकट करने का मार्ग |प्रशस्त कर मोक्ष सुख का वरण करने में सहायक है।" उन्होंने समझाया “साधु के पास भी वही शरीर है, वे ही इंद्रियाँ हैं, वही मन है और वही आत्मा है, किन्तु वह इनका उपयोग साधना के लिए करता है। आप चारों साध्वाचार |का पथ अपनाने के लिए तत्पर हैं, यह प्रमोद का विषय है, किन्तु जिस उत्साह एवं वीरता के साथ आप यह पथ अपनाने के लिए तत्पर हुए हैं उसकी निरन्तरता का निर्वाह साधु-साध्वी बनने के पश्चात् भी करना है। जो सिंह की भांति वैराग्य का पथ अपनाकर उसे सिंह की भांति पालता है, वह श्रेष्ठ है।" स्थानांगसूत्र में प्रतिपादित प्रव्रज्या के मर्म को समझाते हुए आचार्य श्री ने कहा- “प्रव्रज्या का सम्यक् रूपेण इन्द्रियनिग्रह और कषायविजय के साथ पालन किया जाए तो वह सुख की शय्या बन जाती है और यदि प्रव्रजित
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy