SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३४ दीक्षा की वह प्रतीक्षित ऐतिहासिक घड़ी माघ शुक्ला द्वितीया वि.सं. १९७७ गुरुवार तदनुसार १० फरवरी सन् १९२१ उपस्थित हो ही गई। दीक्षा का वह समारोह अद्भुत था। अजमेर में वर्षों से ऐसा उत्सव नहीं हुआ था। सम्पूर्ण अजमेर दूर-दूर से आए हुए श्रावक-श्राविकाओं, बाल-वृद्धों के आगमन से उल्लसित हो रहा था। बड़ा ठाट था। मोती कटले में समवसरण की सी शोभा थी। सूर्योदय से पूर्व ही मोती कटला के प्रागंण में और दरगाह-पथ पर विशाल जनमेदिनी एकत्रित होने लगी। यहां वैरागी और वैरागिनियों का अभिनंदन किया जा रहा था, विविध वाद्ययंत्रों की सुमधुर ध्वनियां समूचे वातावरण को गुंजायमान कर रही थीं। यहाँ से ही दीक्षार्थियों की महाभिनिष्क्रमण यात्रा प्रारम्भ होकर दीक्षास्थल ढहा जी के बाग की ओर प्रस्थान करने वाली थी। इस यात्रा का दृश्य देखते ही बनता था। दीक्षार्थियों के दर्शन हेतु जन-समूह सागर की उत्ताल तरंगों की भांति उमड़ रहा था। चारों मुमुक्षुओं के बैठने के लिए एक सुन्दर बग्गी सजी हुई थी। विरक्तों को सुन्दर वेश एवं आभूषणों से सजाया गया था। लोग श्रद्धा से उन्हें नमन कर कंठे पहना रहे थे, रुपया मुँह में लेकर लौटाने को कह रहे थे। निश्चित समय पर मुमुक्षु हस्तिमल्ल, चौथमल, रूपादेवी और अमृत कंवर बग्गी में आरूढ़ हुए , तो ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप मूर्त हो उठे हो । इतिहास में ऐसे विरले ही उदाहरण हैं जब जननी और जात (माँ-बेटा) एक साथ मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हुए हों । दस वर्षीय हस्ती के मुख पर बालसुलभ सारल्य भी था और मुनियों जैसा गांभीर्य भी दमक रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो इस पंकिल विश्व में जैसे सौम्यभाव का नव उत्पल खिला हो स्वर्णकमल जैसा । जयघोषों के साथ महाभिनिष्क्रमण यात्रा प्रारम्भ हुई। सबसे आगे जैन ध्वज, पश्चात् विविध वादकों के समूह, उनके अनन्तर स्वर्णरजत के आभूषणों से अलंकृत अश्व और पीछे बग्गी थी। बग्गी के चारों कोणों में सुसज्जित दीक्षार्थी मानों चारों दिशाओं में यह सन्देश प्रसारित कर रहे थे कि वैराग्य से बढ़कर आत्मा का कोई बंधु नहीं है। 'न वैराग्यात् परो बंधुः।' अपनी दिनचर्या में सत्ता, सम्पर्क और साधनों के पीछे भागने वाली जनमेदिनी आज इन विरक्तात्माओं का अनुसरण करती नहीं थकती थी। तिजोरियों की अखूट सम्पदा के स्वामी भी आज वैरागियों के दृष्टिपात के लिए लालायित थे। सभी का अन्तःकरण पुकार रहा था, ये धन्य हैं जो | जीवन निर्माण के सही पथ पर अग्रसर हो रहे हैं। शोभायात्रा के नगाड़े सभी का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। किसी की नज़र दीक्षार्थियों के सिर पर धारण किये गये मखमली जरी युक्त लाल छत्रों पर जा रही थी तो कोई सुहागिनों द्वारा सेवित दीक्षार्थिनियों के अभिभावकों को धन्य-धन्य मानकर उनका भी जयजयकार कर रहे थे। अपार श्रावक समूह के जयघोषों तथा अलंकृत नारी-समूह के मंगल गीतों से महाभिनिष्क्रमण यात्रा की शोभा द्विगुणित हो रही थी। वैरागियों के दर्शनार्थ पथ के दोनों छोर, भवनों के गवाक्ष, छतों पर कंगरे, हवेलियों के झरोखे, नर-नारियों, बच्चों, युवक-युवतियों से ठसाठस भरे थे। महाभिनिष्क्रमण यात्रा मंथर गति से ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रही थी त्यों-त्यों पथ के दोनों ओर खड़े विशाल जनसमूह भी उसमें सम्मिलित होते जा रहे थे। ___इस प्रकार चलती हुई महाभिनिष्क्रमण यात्रा के पुष्कर मार्ग पर पहुंचते-पहुंचते तो जनसमूह का ओर छोर ही नजर नहीं आ रहा था। जहां तक दृष्टि पहुंचती थी वहाँ तक जनमेदिनी ही जनमेदिनी दृष्टिगोचर हो रही थी। इससे पूर्व दीक्षा के अवसर पर नगर में इतना विराट् जनसमूह कभी नहीं उमड़ा था। अजमेरवासी भी अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे। ढढ्ढाजी के बाग में स्थित विशाल मैदान में पहुंचते ही शोभायात्रा विशाल धर्मसभा में परिवर्तित हो गई। ___आचार्य श्री शोभाचन्द्र जी म.सा, ब्यावर से पधारे आचार्य श्री मन्नालाल जी म.सा, जैन दिवाकर श्री चौथमल (जी म.सा, स्थविर मुनि श्री मोखमचन्द जी म.सा. आदि श्रमण श्रेष्ठ अपनी अपनी सन्त-मंडली के साथ दीक्षा-स्थल पर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy