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________________ (प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड हुई। |. माता की भावाभिव्यक्ति अपने अन्तर्मन की भावना को पुत्र के समक्ष प्रकट करने का उपयुक्त अवसर समझ कर रूपादेवी ने बालक हस्ती से कहा :- "वत्स ! यह संसार दुःखों का मूल है। जीवन का कोई भरोसा नहीं है। देखते-देखते ही तुम्हारे दादाजी, बड़े पिताजी एवं पिताजी चले गए। मेरे पीहर का भरा-पूरा विशाल परिवार समाप्त हो गया। वहाँ पर मेरे आँसू पोंछने वाला भी कोई नहीं रहा। यही नहीं , 'अब तुम्हारा लाड़ लडाने वाली तुम्हारी प्रिय दादीजी भी तुम्हें और मुझे असहाय छोड़कर चली गई। इस नाशवान संसार में एकमात्र धर्म ही सहारा है। पुत्र ! ज्ञानियों ने कहा है कि जीव अकेला ही आता है, अकेला ही जाता है। उसके साथ उसके किए हुए अच्छे सुकृत तथा बुरे कर्म के अतिरिक्त और कोई नहीं जाता। संसार के ये सब नाते-रिश्ते माता-पिता, पुत्र-बंधु आदि सम्बंध स्वप्न के समान हैं, मिथ्या हैं, छलावा मात्र हैं। यदि माता-पिता, पिता-पुत्र पति-पत्नी आदि के नाते-रिश्ते वस्तुतः सच्चे होते तो कोई किसी को छोड़कर नहीं जाता। पर वास्तविक स्थिति यह है कि सब अपने-अपने सम्बंधियों को, अपने-अपने आत्मीयजनों को छोड़कर एक न एक दिन परलोक को चले जाते हैं। मैं तुम्हारी अनुमति चाहती हूँ। स्पष्ट शब्दों में मुझे दीक्षित होने की अनुमति सहर्ष दे दोगे?" “सन्तों का आसरा (आश्रय) ही सच्चा आसरा है, यहाँ और कोई अपना नहीं । वत्स ! तुम्हारे पिता के देहावसान के पश्चात् से मुझे यह सम्पूर्ण संसार विषवत् त्याज्य लग रहा है। उस घोर दुःखद विपत्ति के समय ही इस असार संसार से मुझे विरक्ति हो गई थी। तुम्हारे जन्म के पश्चात् कुछ समय तक तुम्हारा लालन-पालन करना भी अनिवार्य रूपेण आवश्यक था। इस कारण मैं चाहते हुए भी इस असार संसार से छुटकारा दिलाने वाली भागवती दीक्षा नहीं ले सकी। जब तुम अढाई वर्ष के थे उस समय यह समझ कर कि तुम्हारे दादीजी और नाना-नानी तुम्हारा पालन-पोषण कर लेंगे, मैंने स्वतः ही मुंडित होकर साध्वियों जैसे श्वेत वस्त्र भी धारण कर लिए थे, किन्तु मेरे माता-पिता और तुम्हारे दादीजी के अनुरोध पर अनिच्छा होते हुए भी मुझे घर | पर ही रहना पड़ा। एक बार मैं श्रमणी धर्म में दीक्षित होने के लिए पीपाड़ से सोजत रोड़ भी चली गई, किन्तु सासूजी की आज्ञा न होने के कारण मुझे दीक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। आज इस संसार में तुम्हारी और मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। पुत्र ! मैं दुःखों से भरे इस असार संसार को अग्नि की ज्वालाओं से धधकती हुई भट्टी के समान समझती हूँ। इसीलिए तेरे पिता के परलोक गमन के समय से ही मैं इस संसार के सभी दुःखों से छुटकारा दिलाकर अक्षय शाश्वत सुख प्रदान करने वाली चारित्र धर्म की दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ। तुम्हारे पिता को स्वर्ग सिधारे हुए आठ वर्ष होने आये हैं। मैं एक मात्र तुम्हारे कारण ही आठ वर्षों से अभी तक घर में हूँ। अब तुम बड़े होने आये हो, समझदार हो । अपना भला-बुरा सोच सकते हो। इसलिए मैं अब अपने आत्म-कल्याण के लिए संसार छोड़कर दीक्षा लेना चाहती हूँ।" • पुत्र भी विरक्ति का पथिक बालक हस्ती ने वयस्क व्यक्ति की भांति गंभीर स्वर में कहा-"माँ ! तुमने अपने अन्तर्मन की बात आज मेरे | सम्मुख प्रकट की है , परन्तु यह तुम्हारे अन्तर्मन की ही बात नहीं, मेरा भी मन इसी प्रकार हिलोरें ले रहा है। माँ ! जबसे मैंने होश सम्भाला है तभी से तुम्हें साधारण स्त्रियों से भिन्न पाया है। मैंने प्रायः तुम्हें उदास, विचारमग्न और |
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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