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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ८१२ | जयन्तमुनि जी म.सा. को खड़े-खड़े जब अशुचि आ जाती तो उसे भी आपने अग्लान भाव से हाथों से उठाकर , साफ किया। आपकी ज्ञान गरिमा, संयमनिष्ठा व तपःपूत व्यक्तित्व ने श्रद्धेय गुरु भगवन्तों को भी आकर्षित किया । | परमपूज्य आचार्य भगवन्त पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. ने भावी शासनव्यवस्था हेतु परमपूज्य श्री हीराचन्द्र जी म.सा. का आचार्य पद पर मनोनयन करने के साथ आपको उपाध्याय मनोनीत किया। निमाज में वि.स. २०४८ वैशाख | शुक्ला नवमी सोमवार दिनांक २२ अप्रेल १९९१ को आप संघ द्वारा विधिवत् 'उपाध्याय' पद पर प्रतिष्ठित किये गये। रत्नवंश की इस यशस्विनी परम्परा में आप प्रथम उपाध्याय हैं । आपके जीवन की सरलता, निरभिमानता, संयम की दृढ़ता, आनन पर सहज स्मितता एवं मधुर व सुगम प्रवचन शैली सहज ही भक्तजनों को श्रद्धावनत कर देती है। आप सदैव स्वाध्याय, ध्यान एवं चिन्तन-मनन में लीन रहते हैं, आपके चिन्तनपरक, आगमिक, सारगर्भित एवं प्रभावक प्रवचनों से श्रोतागण सहज ही त्याग प्रत्याख्यान की | | ओर प्रेरित होते हैं । आपके चुम्बकीय व्यक्तित्व में भक्तजन 'चौथे आरे की बानगी' का अनुभव करते हैं । आपके प्रतिदिन दोपहर में १२ से २ बजे तक तथा कृष्णपक्ष की दशमी को पूर्ण मौन रहता है । पूज्य चरितनायक ने आपकी योग्यता एवं प्रतिभा को देखकर अहमदाबाद और दिल्ली जैसे वृहत् क्षेत्रों में | स्वतन्त्र चातुर्मास प्रदान किए, जिनमें ज्ञानक्रिया का सुन्दर रूप देखकर वहां के श्रावक अत्यन्त प्रभावित हुए। दिल्ली | के श्रावक तो कहने लगे- जब मानचन्द्र जी म. सा. ज्ञान-क्रिया में इतने ऊंचे हैं तो इनके गुरुदेव कैसे होंगे। दिल्ली का | शिष्टमण्डल सवाईमाधोपुर में पूज्य गुरुदेव के दर्शन कर इतना प्रमुदित हुआ मानो भगवान के दर्शन किए हों उपाध्याय पद पर आरोहण के पश्चात् आपके जोधपुर, (संवत् २०४८) मदनगंज (संवत् २०५५), जलगांव (संवत् २०५७) तथा धुलिया (संवत् २०५८) में श्रद्धेय आचार्यप्रवर के साथ चातुर्मास रत्नवंश की यशस्विनी परम्परा की | गौरव गरिमा को आगे बढ़ाने वाले रहे तथा भीलवाड़ा (संवत् २०४९), कोटा (संवत् २०५०), कंवलियास (संवत् २०५१), पाली (संवत् २०५२), कोसाना (संवत् २०५३), जयपुर (संवत् २०५४), सवाईमाधोपुर (संवत् २०५६), तथा | होलानांथा (संवत् २०५९) के स्वयं के चातुर्मास आपके साधनातिशय, निर्मल निरतिचार संयम निष्ठा, निरभिमानता प्रभृति आत्म- गुणों की छाप जन-मानस पर अंकित करने में सफल रहे । उपाध्यायप्रवर प्रशान्तात्मा, पंडितप्रवर एवं | सरलमना सन्त हैं । आचार्यप्रवर आगमज्ञ पं. रत्न श्री हीराचन्द्र जी म.सा. व्यक्तित्व में 'हीरे' सी चमक व दमक और संयम में 'हीरे' सी दृढ़ता, श्रमणों में कोहिनूर 'हीरे' के समान | देदीप्यमान, श्रमणवरेण्य का नाम है पं. रत्न श्री हीराचन्द जी म.सा. । आपका जन्म वि.सं. १९९५ चैत्र कृष्णा अष्टमी 'आदिनाथ जयन्ती' पावन दिन १३ मार्च, १९३९ को मरुधरा के धर्मप्रधान क्षेत्र पीपाड़ शहर में अनन्य धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्री मोतीलाल जी गांधी की धर्मशीला सहधर्मिणी श्रीमती मोहिनीबाई जी गांधी की रत्नकुक्षि से हुआ । धर्मनिष्ठ माता-पिता व धर्म-गुरुओं से आपको सत्संस्कार विरासत में ही प्राप्त हुए। आपका बचपन नागौर में बीता। बचपन में ही छोटी बहिन के आकस्मिक | देहावसान से आपको संसार की विनश्वरता का बोध हुआ तथा आपके बाल मन में वैराग्य अंकुर का वपन हुआ, जो पूज्य गुरु भगवंतों के पावन समागम से पल्लवित होता रहा । परम पूज्य आचार्य हस्ती के संवत् २०१३ के ( बीकानेर चातुर्मास में उनके दिशा निर्देशन में आपका व्यवस्थित अध्ययन प्रारम्भ हुआ। गुरुदेव के पावन सान्निध्य व
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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