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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड ___ गिरधारीलालजी मुणोत पीपाड़ में निमाज ठिकाने का कार्य देखते थे। उनके खेती का धंधा भी था। हाली' | से खेती कराते थे। खूब सम्पत्ति थी। किन्तु प्लेग के प्रलय ने सर्वनाश कर दिया। घर एवं सम्पत्ति पर राज्य ने कब्जा कर लिया। रूपा देवी एवं बालक हस्ती को राज्य ने उसमें से कुछ भी नहीं दिया। सत्य द्रष्टा रूपा देवी एवं उनके लाड़ले सुपुत्र को इसकी चाह भी नहीं थी –'विरक्तस्य तृणं जगत्' । • दादी भी दिवंगत प्लेग के प्रलय के कुछ समय पश्चात् बालक हस्ती की प्यारी दादी नौज्यांबाई अचानक अस्वस्थ हो गईं। वह निरन्तर असह्य आघातों और अपनी अवस्था के कारण क्षीणकाय हो चुकी थी। दादी की अस्वस्थता से माता रूपा देवी एवं बालक हस्ती को चिन्ता हुई। उन्होंने वैद्य को बुलाकर दिखाया, समुचित उपचार भी कराया, किन्तु दादीजी के स्वास्थ्य पर कोई अनुकूल प्रभाव न पड़ा। 'अपि धन्वन्तरिर्वैद्यः किं करोति गतायुषि'- आयु बीत जाने पर धन्वन्तरि वैद्य भी कुछ नहीं कर पाते । बहू रूपा सासू जी को नित्य प्रति बृहदालोयणा, प्रतिक्रमण, भजन आदि सुनाने लगी। पौत्र हस्ती भी दादीजी के पास बैठ कर उन्हें अच्छी-अच्छी बातें बताता। दादीजी को कभी अपने हाथ से दवा देता, दूध पिलाता। पोशाल के पश्चात् वह अपना अधिकांश समय दादीजी के पास बिताता एवं उन्हें मोह एवं ममता से दूर रहकर वीतराग प्रभु के ध्यान और नमस्कार मंत्र के जाप में लीन रहने की बात कहता। नौज्यांबाई अपने पौत्र एवं बहू द्वारा की गई सेवा-सुश्रूषा से प्रसन्न होती। चित्त को समाधि में रखने की बातें, स्तवन एवं भजन भी उन्हें अच्छे लगते। जब एक दिन नौज्यांबाई की तबीयत अधिक बिगड़ गई, श्वास लेने में भी कठिनाई होने लगी, तो पड़ौसियों एवं समाज के गणमान्य लोगों से परामर्श कर रूपादेवी ने नौज्यांबाई की भावनानुसार संथारा करा दिया। संथारा पहले सागारी कराया एवं फिर शरीर की स्थिति देखकर जीवनपर्यन्त के लिए करा दिया गया। आस-पड़ोस के एवं समाज के अनेक लोग नौज्यांबाई के दर्शन करने आए। बालक हस्ती समाधिस्थ दादी को एकटक देखता तथा उसे लगता कि मृत्यु की यह सर्वश्रेष्ठ कला है। बालक हस्ती ने इस बात को अन्तर्हदय से समझ लिया था कि मृत्यु सुनिश्चित है, वह प्लेग जैसे बाह्य प्रकोप के कारण भी हो सकती है तो वृद्धावस्था आदि अन्य कारणों से भी हो सकती है। अत: जब मृत्यु सन्निकट हो तो संथारापूर्वक समाधिस्थ होकर मृत्यु का आलिङ्गन करना ही उचित है। | लगता है संथारे का यह संस्कार बालक के अन्तर्मन में गहराई से बैठ गया हो और जो आगे चलकर पुष्ट होता हुआ निमाज में फलीभूत हुआ हो। दादी नौज्यांबाई ने संथारे के दूसरे दिन नमस्कार मंत्र का मन्द स्वर में उच्चारण करते हुए हिचकियां लीं एवं बड़ी शान्तमुद्रा में देह का त्याग कर दिया। परिवार में अब मात्र दो प्राणी ही रह गए थे। तेजस्वी, शान्त एवं विवेकशील बालक हस्ती और उनकी श्रद्धेया एवं प्रेरणाप्रदात्री माता। माता एवं पुत्र दोनों जीवन के इस शाश्वत सत्य से पूर्णतः परिचित हो गये थे कि यह जीवन लीला कभी भी समाप्त हो सकती है, इसका विनश्वर होना सत्य है। इसलिए दोनों का लक्ष्य तप-त्याग एवं संयम के पथ को अपनाने की ओर केन्द्रित हो गया था, तथापि अभी दीक्षा-ग्रहण करने का समय नहीं आया था। क्योंकि परिवार में हस्ती की देखभाल के लिए माता का रहना आवश्यक था। __माता ने बोहरा परिवार के अन्य सदस्यों पर आश्रित होने की अपेक्षा स्वावलम्बन को महत्त्व दिया । इसलिए | उन्होंने चरखा चलाकर भी आजीविका की व्यवस्था का क्रम जारी रखा। बालक हस्ती भी श्रम में भागीदार बनना
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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