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________________ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड ७९७ सतारा के (धार्मिक) सात्त्विक बंधु, करो धर्म उद्योत । फिर से चमको हिन्द सितारे, बढ़े जैन धर्म की ज्योतजी ॥७ ॥वर्षा ॥ रत्नवंश सौभाग्य गुरुपद - कज सेवी गज इंद । हार्दिक भाव सुनाये तुमको (लेके)शरण वीर जिनन्दजी ॥८॥वर्षा | (सतारा चातुर्मास संवत् १९९६ के अवसर पर) महावीर स्तुति (तर्ज - सेवो सिद्ध सदा जयकार) ध्याओ शासनपति महावीर, इससे होवे मंगलाचार ॥टेर ॥ क्षत्रियकुल में जन्म लिया प्रभु, धन धन वृद्धि अपार । राज्य विभव सब त्यागे आपने, योग लिया स्वीकार ॥१॥ध्याओ॥ काम, क्रोध, मद षड् रिपुओं का, किया विजय सुखकार । सकल चराचर के ज्ञायक बन,बोध दिया हितकार ॥२॥ध्याओ ॥ विजया अपराजिता देवी मिल, सेव करे त्रिकाल । वर्द्धमान का ध्यान धरे नित,जो घर हर्ष अपार ॥३॥ध्याओ ॥ (६०) पार्श्वनाथ स्तुति (तर्ज - तुमको लाखों प्रणाम) वामाजी के नन्दन, तुम हो मेरे आधार ॥ध्रुव ॥ काशी देश जन्म प्रभु लीना, अश्वसेन कुल उन्नत कीना ।। ___ मम मन मंदिर रहना, तुम हो- ॥१॥ जग में अन्य पदार्थ नाना, उनमें नहीं आनन्द पिछाना । जीवन हित धर लीना, तुम हो... ॥२॥ साधन से शासन हित करना, इसी कामना में हो मरना ।। तन मन अर्पण करना, तुम हो- ॥३॥ सफल बनूं निज हित साधन में, यही आशा तुमसे है मन में । लीन हूं तेरी लगन में, तुम हो - ॥४॥ चैत्र कृष्ण तिथि तव सुमिरण में, संघोन्नति ही बसी धुनन में । 'हस्ती' मगन मनन में, तुम हो.. ॥५॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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