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________________ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड ७८५ धन्य वह आज की घड़ियां, धन्य वह वसुमती वसुधा । बचाया धर्म 'हस्ती' को ॥९॥मुबारक ॥ (४१) वर्षाकाल में जतना (तर्ज- धर्म का मारग है बांका....) जीव की जतना कर लीजे रे२, आयो वर्षाकाल धर्म की करणी कर लीजे ॥टेर ॥ दया धर्म को मूल समझ कर, समता रस पीजे रे, समझकर२ ॥आयो॥ नित वर्षे जल बिन्दु गगन से, जीव चले असराल । लीलण फूलण पांच रंग की, चालो उनको टाल ॥१॥जीव ॥ खाने पीने की वस्तु का संग्रह नहीं कीजे । मिर्च, मसाले और दाल, बिन देखां मत लीजे ॥२॥जीव ॥ रात्रि-भोजन आदि अंधाधुंध सज्जन तज दीजे । चौमासा के पुण्य दिनों में, हिंसा टालीजे ॥३॥जीव ॥ मुनिवर तज संचार काल, वर्षा में स्थिर रहते । उत्तम श्रावक धर्मी भी नहिं, बिन मतलब भमते ॥४॥जीव ॥ (रामचन्द्र वनवास समय भी, पंचवटी रहते) ॥४॥जीव ॥ असंख्य जीव मल-मूत्र स्थान में, ज्ञानी बतलाते । गली-नली को छोड़ दया हित, सूखे में जाते ॥५॥जीव ॥ बिन छाने मति पीओ पानी, जीव-पिंड लो जान बंधुवरजी । दिन प्रति दोनों समय निहाले, पाणी को मतिमान ॥६॥जीव ॥ जीव असंख्य हुए भूमि पर, भटकत मर जावे । ताने ज्ञानी जीव दया हित, पौषध व्रत ठावे ॥७॥जीव ॥ पर्व समय का लाभ कमावन, आरम्भ तज देना रे । आज्ञापूर्वक निज गुण साधो, पाओ सुख चैना रे ॥८॥जीव ॥ दान, शील, तप,भाव आराधो, विमल भाव धरके रे, आराधो । 'गजमुनि' सत्य समझकर सेवो, प्राणी सब जगके ॥९॥जीव ॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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