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________________ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड यथायोग्य गुण को दिपाना भाई २, प्रोत्साहित जन गण गुण ग्रहण की सभी प्रेरणा धर अस्थिर मन से धर्म कभी नहीं होता २, यथाशक्ति स्थिर भाव करो तुम भ्राता । द्रव्यभाव से स्थिरीकरण होता है२, मुनि श्रावक का भिन्न रूप होता है । ज्ञान जगाकर भ्रान्त चित्त राग मोह अरति से अस्थिर सेवा बोध संवेदन से धर्म प्रेम से दर्शन पंथक से सेलक सेवा से धर्मी की होता सुखदाई । लो ॥७ ॥ संभालो ॥८ ॥ होवे २, दुःख खोवे । पुष्टि आवेर, मुनि भान मिलावे । अरति टालो ॥९॥ वत्सलता दर्शन में सप्तम जानो २, प्रीति भाव से त्याग करे नर छानो । धर्म समाज में अस्थिरता है छाई२, परिवर्तन का चक्र रहा मंडराई । ज्ञान व्यवस्था से अब वृत्ति सुधारो २ ॥१० ॥ दंसण - नाण - चरित्र से धर्म दीपाना, त्याग-तपस्या से शोभे श्रेष्ठ पहचानो २ प्रभावना के अंग जनमानस में बढ़े धर्म दर्शन गुण को इह विधि भवि चमकालो ॥११॥ दर्शन की भित्ति पर व्रत शोभावेर, व्रत नाना । मति ठानो । कामदेव अरणक सब गुण गावे । सुलसा की दृढ़ता जिनवर वीर सरावे २, जयपुर में 'गजमुनि' यो भाव सुनावे । पुष्ट सद्दर्शन शिव पद पालो ॥१२ ॥ ७८१
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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