SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 828
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं श्वास न प्राण रूप भी तुम हो, सबमें जीवनदायक तुम हो ॥३॥ पृथ्वी, जल, अग्नि नहीं तुम हो, गगन अनिल भी नहिं तुम हो । मन, वाणी, बुद्धि नहीं तुम हो, पर सबके संयोजक तुम हो ॥४॥ मात, तात, भाई नहीं तुम हो, वृद्ध नारी-नर भी नहीं तुम हो । सदा एक अरु पूर्ण निराले, पर्यायों के धारक तुम हो ॥५॥ जीव, ब्रह्म, आतम अरु हंसा 'चेतन' पुरुष रूह तुम ही हो । नाम रूपधारी नहिं तुम हो, नाम वाच्य फिर भी तो तुम हो ॥६॥ कृष्ण, गौर वर्ण नहीं तुम हो, कर्कश, कोमल भाव न तुम हो । रूप, रंग धारक नहिं तुम हो, पर सब ही के ज्ञायक तुम हो ॥७॥ भूप, कुरूप, सुरूप न तुम हो, सन्त, महन्त, गणी नहिं तुम हो ।। 'गजमुनि' अपना रूप पिछानो, सब जग एक शिरोमणि तुम हो ॥८॥ (३) आत्म-बोध (तर्ज-गुरुदेव हमारा कर दो...) समझो चेतनजी अपना रूप, यो अवसर मत हारो ॥टेर ॥ ज्ञान दरस-मय, रूप तिहारो, अस्थि-मांस मय, देह न थारो ॥ दूर करो अज्ञान, होवे घट उजियारो ॥१॥समझो ॥ पोपट ज्यूं पिंजर बंधायो, मोह कर्म वश स्वांग बनायो । रूप धरे हैं अनपार, अब तो करो किनारो ॥२ ॥समझो । तन-धन के नहीं, तुम हो स्वामी, ये सब पुद्गल पिंड हैं नामी । सत् चित् गुण भण्डार, तू जब देखन हारो ॥३॥समझो ॥ भटकत-भटकत नर तन पायो, पुण्य उदय सब योग सवायो । ज्ञान की ज्योति जगाय, भरम तम दूर निवारो ॥४॥समझो॥ पुण्य-पाप का तू है कर्ता, सुख-दुःख फल का भी तूं भोक्ता । ____ तूं ही छेदनहार, ज्ञान से तत्त्व विचारो ॥५॥समझो ॥ कर्म काट कर मुक्ति मिलावे, चेतन निज पद को तब पावे ।। ___ मुक्ति के मार्ग चार, जानकर दिल में धारो ॥६॥समझो ॥ सागर में जलधार समावे, त्यूं शिवपद में ज्योति मिलावे । होवे 'गज' उद्धार, अचल है निज अधिकारो ॥७॥समझो॥
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy