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________________ ७४१ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड पंखों के कुशल रहते ही ऊपर उड़ सकता एवं स्वैर विहार कर सकता है, वैसे ही मानव जीवन के लिए उपर्युक्त दोनों प्रकार की साधना अपेक्षित है। फिर भी जीवन को ऊंचा उठाने के लिए आध्यात्मिक साधना को प्रधान एवं शारीरिक साधना को गौण रूप देना सुसंगत है।" 'आध्यात्मिक आलोक' में आनन्द श्रावक को माध्यम बनाकर श्रावक जीवन के लिए उपयोगी एवं प्रेरक सन्देश दिया गया है। प्रसंगत: अनेक प्रेरक कथानकों का समावेश प्रवचनों की सरलता, रोचकता एवं सुगमता में सहायक सिद्ध हुआ है। (५) प्रार्थना प्रवचन जैन दर्शन में यह माना जाता है कि सभी जीव अपने कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करते हैं तथा अरिहंत, सिद्ध आदि देव भी किसी के कर्मों में परिवर्तन नहीं कर सकते। अतएव प्रश्न उठता है कि तीर्थंकरों की प्रार्थना क्यों की जाए ? आचार्य श्री ने इस प्रकार के प्रश्नों का समाधान बहुत ही सुन्दर रीति से 'प्रार्थना प्रवचन' पुस्तक में प्रस्तुत किया है। आचार्य श्री ने फरमाया है - “वीतराग भगवान के भजन से भक्त को उसी प्रकार लाभ मिलता है जिस प्रकार सूर्य की किरणों के सेवन से और वायु के सेवन से रोगी को लाभ होता है।” “वीतराग होने के कारण वे इस कामना को लेकर नहीं चलते कि अमुक प्रार्थी मेरी प्रार्थना कर रहा है, अतएव उस पर दया दृष्टि की जाए और उसे कोई बख्शीस दी जाए और जो प्रार्थना नहीं करता उसे दण्ड दिया जाए। ऐसा होने पर भी यह असंदिग्ध है कि जो भक्त शान्तचित्त से वीतराग की प्रार्थना करते हैं, स्मरण करते हैं उन्हें जीवन में अपूर्व लाभ की प्राप्ति होती है। वीतराग के विशुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन भक्त के अन्त:करण में समाधिभाव उत्पन्न करता है और उस समाधि | भाव से आत्मा को अलौकिक शान्ति की प्राप्ति होती है। भक्त के हृदय में बहता हुआ विशुद्ध भक्ति का निर्झर | उसके कलुष को धो देता है और आत्मा निष्कलुष बन जाती है।" प्रार्थना वीतराग परमात्मा की ही क्यों की जाती है? इसका मुख्य हेतु वीतरागता प्राप्त करना ही है। आत्मा के लिए परमात्मा सजातीय और जड़ पदार्थ विजातीय हैं। सजातीय द्रव्य के साथ रगड़ होने पर ज्योति प्रकट होती है | और विजातीय के साथ रगड़ होने से ज्योति घटती है। चेतन का चेतन के साथ सम्बन्ध होना सजातीय रगड़ है और जड़ के साथ सम्बन्ध होना विजातीय रगड़ है। सजातीय में भी अपनी चेतना की अपेक्षा अधिक विकसित चेतना के साथ रगड़ होगी तो विकास होगा और यदि कम विकसित या मुर्झयी हुई चेतना के साथ रगड़ होगी तो हमारा आत्मिक विकास नहीं होगा। अतएव हमारी प्रार्थना का ध्येय वे हैं जिन्होंने अज्ञान का आवरण छिन्न भिन्न कर दिया है, मोह के तमस को हटा दिया है और जो वीतरागता व सर्वज्ञता की स्थिति तक पहुँच चुके हैं। आचार्य श्री प्रार्थना का फल संक्षेप में इस प्रकार प्रतिपादित करते हैं - 'जैसे मथनी घुमाने का उद्देश्य नवनीत प्राप्त करना है उसी प्रकार प्रार्थना का उद्देश्य परमात्म-भाव रूप मक्खन को प्राप्त करना है।' सम्पूर्ण पुस्तक प्रार्थना के विवेचन पर ही केन्द्रित है । इसमें कुल १६ प्रवचन हैं जिनमें 'प्रार्थना केन्द्र, प्रार्थना वर्गीकरण, तारतम्य , प्रार्थना कैसी हो, प्रार्थना का लक्ष्य, एकनिष्ठा, प्रभुप्रीति, प्रार्थना-प्रभाव, प्रार्थनीय कौन, निर्बल के बल राम, अन्त:करण के आईने को मांजो, गुण-प्रार्थना, प्रार्थना का अद्भुत आकर्षण, आदर्श माता की आराधना, मन | मेरु की अचलता, परदा दूर करो, जीवन का मोड़ इधर से उधर' आदि सम्मिलित हैं। आचार्य श्री ने ये प्रवचन श्री अमरचन्द जी म.सा. की सेवा में रहते हुए जयपुर में प्रार्थना के समय फरमाए |
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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