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________________ चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड ७३७ सहिष्णुता को उपयुक्त मानते हैं। आचार्य श्री फरमाते हैं-“आज सार्वजनिक मतभेद और झगड़ों का कारण असहिष्णुता है। विचार भेद एवं मतभेद होना एक बात है, पर उसके लिए द्वेष करना दूसरी बात है। आज से पहले भी जैन, वैष्णव, मुसलमान आदि अनेक मत तथा वल्लभ, शाक्त , शैव, रामानुज आदि विविध सम्प्रदायें थीं, परन्तु उनमें विचार भेद होने पर भी सहिष्णुता थी। इसी से उनका जीवन शान्ति और आराम से व्यतीत होता था। गांधी जी ने अपने अनेक व्रतों में एक सर्वधर्म समभाव व्रत भी माना है। उसकी जगह सर्वधर्म सहिष्णुता को मान लिया जाए तो उनके मत से हमारी एकवाक्यता हो सकती है।” सत्य महाव्रत नामक प्रवचन में आचार्य श्री फरमाते हैं कि सत्यवादियों की देव भी सहायता करते हैं। इसलिए सत्य दूसरा भगवान है। सत्यव्रत के पालन में भले ही कठिन साधना करनी पड़े और तत्काल कठोर दण्ड भी सहन करना पड़े फिर भी असत्य के रास्ते नहीं लगना चाहिए। आचार्य श्री ने स्थानांग में वर्णित १० प्रकार के सत्यों का विवेचन करने के साथ इस प्रवचन में १० प्रकार के वर्जनीय सत्य भी बताए हैं तथा सत्यव्रत के ५ दोषों का निवारण करने पर भी बल दिया है। उस समय भारतवर्ष में अकाल का बोलबाला था। अत: आचार्य श्री ने देश की दुर्दशा के सम्बन्ध में प्रवचन करते हुए कर्त्तव्य पालन और पारस्परिक सहयोग की प्रेरणा की है। समाज में व्याप्त विषमता पर भी आचार्य श्री ने ध्यान केन्द्रित किया है। आचार्य श्री फरमाते हैं कि अपने चारों ओर किसी भी प्राणी को दुःखी नहीं होने देना, उनकी देखभाल करना और कोई संकट में हो तो तत्काल उसकी सहायता करना यही सामान्य धर्म या पूजा है। धर्म के सम्बन्ध में आचार्य श्री का मन्तव्य है कि शुद्ध आत्मस्वरूप की तरफ ले जाने वाले पवित्र चिन्तन, मनन और आचरण ही वास्तविक धर्म हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, निर्लोभता आदि उसके प्रमुख अङ्ग हैं। ‘मनोजय के सरल उपाय' नामक प्रवचन में आचार्य श्री ने विरक्ति भाव को मुख्यता दी है। आपका फरमाना है कि जितना विरक्ति का अभ्यास बढ़ता जायेगा उतना ही मन का क्षेत्र संकुचित होता जायेगा और अन्त में दृश्य जगत के भौतिक पदार्थ मात्र से विरक्त होकर यह जीव आत्म-रमण में लीन हो जायेगा, यही पूर्ण मनोजय है। भेदज्ञान से बाह्य पदार्थों को नश्वर और पर समझकर उनसे विरक्त रहना चाहिए, क्योंकि आत्म-स्वरूप ही अनुराग करने योग्य है। 'आत्म तत्त्वमीमांसा' प्रवचन में प्रश्नोत्तर शैली को अपनाया गया है। इसमें प्रतिपादित किया गया है कि आत्मा ही कर्म का कर्ता और भोक्ता है। यदि इस सिद्धान्त को नहीं माना जाए तो सर्वत्र अव्यवस्था हो जायेगी। आत्मा नित्य द्रव्य भी है, किन्तु वह नया शरीर धारण करने और जीर्ण शरीर को छोड़ने रूप पर्याय बदलता रहता है। आत्मा ज्ञान, क्षमा, सरलता, आदि अनन्त गुणों का पुञ्ज है। 'कारण विचार' नामक प्रवचन में विविध कारणों की चर्चा की गई है तथा उपादान और निमित्त दोनों प्रकार के कारणों का महत्त्व स्थापित किया गया है। 'जैन साधु की आधार शिला' नामक प्रवचन में आचार्यप्रवर ने साधु-साध्वियों की वन्दनीयता के लिए आधारभूत पाँच नियमों को आवश्यक बताया है- (१) निन्दा त्याग (२) विकथा प्रपञ्चत्याग (३) विभूषा और स्त्री संसर्ग-त्याग (४) उपशम भाव (५) असंग्रह वृत्ति। ___ इस प्रकार आचार्य श्री गजेन्द्र के प्रवचनों की यह अद्भुत पुस्तक है जिसमें एक ही स्थान पर विविध विषयों का निरूपण करते हुए पाठक का सम्यक् मार्गदर्शन किया गया है। प्रवचनों का सम्पादन पं. शशिकान्त जी झा के द्वारा किया गया है। (२) गजेन्द्र मुक्तावली भाग-२ आचार्य श्री के प्रवचनों की यह दूसरी पुस्तक 'सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल' द्वारा गुप्त द्रव्य सहायकों के | | सहयोग से प्रकाशित हुई है। इसमें कुल ७ प्रवचन उपलब्ध हैं । (१) भौतिकवाद और धर्म (२) दुःख का मूल लोभ |
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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