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________________ (चतुर्थ खण्ड : कृतित्व खण्ड ७३३ ___पाठान्तरों या पाठ-भेदों की समस्या प्रश्नव्याकरण में नन्दीसूत्र से भी अधिक है। इसका अनुभव स्वयं आचार्य श्री ने किया है। उन्होंने पाठ-भेद की समस्या पर प्राक्कथन में उल्लेख करते हुए लिखा है-“आगम मंदिर (पालीताणा) | जैसी प्रामाणिक प्रति जो शिलापट्ट और ताम्रपत्र पर अंकित हो चुकी है, वह भी अशुद्धि से दूषित देखी गई है।" आचार्यप्रवर ने पाठ-संशोधन हेतु अनेक प्रतियों का तुलनात्मक उपयोग किया है, जिनमें प्रमुख थी - अभयदेव सूरि | कृत टीका, हस्तलिखित टब्बा , ज्ञान विमलसूरि कृत टीका एवं आगम मंदिर पालीताणा से प्रकाशित मूल पाठ। संशोधित-पाठ देने के बाद आचार्यप्रवर ने पाठान्तर सूची भी दी है, जिसमें अन्य प्रतियों में उपलब्ध पाठ-भेद का उल्लेख किया है। प्रश्नव्याकरण के जो पाठ-भेद अधिक विचारणीय थे , ऐसे १७ पाठों की एक तालिका बनाकर समाधान हेतु विशिष्ट विद्वानों या संस्थाओं को भेजी गई, जिनमें प्रमुख हैं-१. व्यवस्थापक आगम मंदिर, पालीताणा २. पुण्यविजय जी , जैसलमेर ३. भैरोंदान जी सेठिया, बीकानेर, ४. जिनागम प्रकाशन समिति, ब्यावर एवं ५. उपाध्याय श्री अमर मुनि जी, ब्यावर । तालिका की एक प्रति 'सम्यग्दर्शन' में प्रकाशनार्थ सैलाना भेजी गई, किन्तु इनमें से तीन की ओर से पहँच के अतिरिक्त कोई उत्तर नहीं मिला। सम्यग्दर्शन पत्रिका के प्रथम वर्ष के ग्यारहवें अंक में यह तालिका | प्रकाशित हुई , किन्तु किसी की ओर से कोई टिप्पणी नहीं आई। इस प्रकार साधन-हीन एवं सहयोग रहित अवस्था में भी आचार्यप्रवर ने अथक श्रम एवं निष्ठा के साथ श्रुतसेवा की भावना से प्रश्न-व्याकरण सूत्र का विशिष्ट संशोधित संस्करण प्रस्तुत कर आगम-जिज्ञासुओं का मार्ग प्रशस्त किया। (४) बृहत्कल्पसूत्र श्री बृहत्कल्पसूत्र पर आचार्यप्रवर ने एक अज्ञात संस्कृत टीका का संशोधन एवं सम्पादन किया है। प्राक्कथन एवं बृहत्कल्प परिचय के साथ यह पाँच परिशिष्टों से अलंकृत है। इस सूत्र का प्रकाशन सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के पुरातन कार्यालय त्रिपोलिया बाजार, जोधपुर द्वारा कब कराया गया , इसका ग्रंथ पर कहीं निर्देश नहीं है, किन्तु आन्तरिक विवरण से यह सुनिश्चित है कि इस सूत्र का प्रकाशन प्रश्नव्याकरण की व्याख्या के पूर्व अर्थात् सन् | १९५० ई. के पूर्व हो चुका था। ___ आचार्यप्रवर हस्ती की बृहत्कल्प की यह संस्कृत-टीका अजमेर के सुश्रावक श्री सौभाग्यमलजी ढड्डा के ज्ञान-भण्डार से प्राप्त हुई जो संरक्षण के अभाव में बड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी। आचार्यप्रवर के दक्षिण प्रवास के दौरान इसके संशोधन व सम्पादन का कार्य सम्पन्न हुआ। बृहत्कल्प के ये संस्कृत टीकाकार कौन थे, यह ज्ञात नहीं, किन्तु यह संकेत अवश्य मिलता है कि श्री सौभाग्यसागरसूरि ने इस सुबोधा टीका को बृहट्टीका से उद्धृत किया था। उसी सुबोधा टीका का संपादन आचार्य श्री ने किया। बृहत्कल्प सूत्र छेद सूत्र है, जिसमें साधु-साध्वी की समाचारी के कल्प का वर्णन है। आचार्यप्रवर ने सम्पूर्ण कल्पसूत्र की विषय-वस्तु को हिन्दी पाठकों के लिए संक्षेप में 'बृहत्कल्प परिचय' शीर्षक से दिया है जो बहुत उपयोगी एवं सारगर्भित है। अंत में पाँच परिशिष्ट हैं। प्रथम परिशिष्ट में अकारादि के क्रम से सूत्र के शब्दों का ३४ पृष्ठों में हिन्दी अर्थ दिया गया है। द्वितीय परिशिष्ट में पाठ-भेद का निर्देश है। तृतीय परिशिष्ट बृहत्कल्पसूत्र की विभिन्न प्रतियों के परिचय से सम्बद्ध है । चतुर्थ परिशिष्ट में वृत्ति में आए विशेष नामों का उल्लेख है , जो
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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