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________________ आचार्यप्रवर की साहित्य-साधना (आचार्यप्रवर की कृतियों का परिचय) आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. आगमनिष्ठ चिन्तक एवं उच्च कोटि के साधक सन्त थे। आपके साधनानिष्ठ जीवन में ज्ञान एवं क्रिया का अद्भुत समन्वय था। 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' के इस अद्भुत साधक ने समाज में श्रुतज्ञान के प्रति विशेष जागृति उत्पन्न की। आपका चिन्तन था कि ज्ञान का सार क्रिया है एवं क्रिया को जब ज्ञान की आंख मिलती है तभी वह तेजस्वी बनती है। श्रुतज्ञान के प्रसार के लिये आपने एक ओर स्वाध्याय संघ की संगठना एवं ज्ञान-भण्डारों की स्थापना की प्रेरणा कर ज्ञान के प्रति जन-जागरण की अलख जगाई, तो दूसरी ओर आगम-व्याख्या, आध्यात्मिक व शिक्षा-संस्कारप्रदायी भजनों एवं अपने जीवन निर्माणकारी प्रेरक प्रभावक प्रवचनों के माध्यम से माँ भारती के भण्डार को समृद्ध करने में विशिष्ट योगदान किया। आप स्थानकवासी परम्परा की जिस रत्नसम्प्रदाय के तेजस्वी आचार्य थे, उसमें रचनाधर्मिता की सुदीर्घ | परम्परा रही है। पूज्य श्री कुशलो जी म.सा. के परमाराध्य गुरुवर्य तपोधनी आचार्य श्री भूधरजी म.सा. उच्च कोटि के भक्त कवि थे। 'वे गुरु मेरे उर बसो' प्रभृति उनकी रचनाएँ गागर में सागर सम भावप्रवण हैं। पूज्य श्री कुशलो जी म.सा. के गुरु भ्राता पूज्य श्री जयमलजी म.सा. उच्च कोटि के साधक रचनाकार थे। यह परम्परा जिन महाविभूति के नाम से प्रसिद्ध है, वे पूज्यपाद आचार्य श्री रत्नचन्दजी म.सा. अत्युच्च कोटि के फक्कड़ कवि थे। उनके द्वारा रचित 'आचार छत्तीसी' आदि अनेक रचनाएँ साधकों का पथ प्रशस्त कर उन्हें संयम के सच्चे स्वरूप व मानव देह धारण के लक्ष्य का भान कराती हैं। उनकी रचनाएँ 'रतनचन्द्र पद मुक्तावली' के नाम से प्रकाशित हो चुकी हैं तो उनके चाचा गुरु पूज्य श्री दुर्गादास जी महाराज की रचनाएँ 'दुर्गादास पदावली' के रूप में प्रकाशित हुई हैं। पूज्य आचार्य श्री रतनचन्दजी महाराज के पट्टधर आचार्य श्री हम्मीरमलजी महाराज के उपदेश व साधनामय व्यक्तित्व से प्रेरित हो प्रज्ञाचक्षु भक्त कविश्रेष्ठ श्री विनयचन्द जी कुम्भट ने 'विनयचन्द चौबीसी' जैसी महास्तुति की रचना की है। पूज्य आचार्य श्री रतनचन्दजी महाराज के सुशिष्य श्री हिम्मतरामजी महाराज, उनकी सुशिष्या महासती श्री जडावजी महाराज आदि उच्च कोटि के काव्य रचनाकार हुए हैं। आगे चलकर वादीमर्दन कनीराम जी महाराज ने 'सिद्धान्तसार' जैसे उच्च कोटि के सैद्धान्तिक ग्रन्थ के माध्यम से वैचारिक द्वन्द्व में फंसे कई सन्तों को भी स्थानकवासी परम्परा के मूल सिद्धान्तों में दृढ किया। श्री सुजानमलजी महाराज की रचनाएँ 'सुजान पद वाटिका' के रूप में संकलित हैं। इसके अतिरिक्त भी परम्परा में अनेक सन्त कवि एवं साध्वी कवयित्रियां हुई हैं, जिनकी रचनाएँ भक्त हृदयों को छु लेती हैं। युगमनीषी आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. ने उत्कृष्ट संयम-साधना के साथ-साथ श्रुत साधना का गौरव उपस्थित किया। पूज्यप्रवर के लिये साहित्य-रचना प्रचार का नहीं, वरन् आचार मार्ग को परिपुष्ट करने, ज्ञानातिचार से बचने व भव-दुःख से संतप्त जन-जन तक वीरवाणी को पहुँचाने का माध्यम थी। आपकी रचनाओं में जीवन-निर्माण, संस्कारवपन एवं आचार निष्ठा का ही बोध है । आपका लक्ष्य अपने आपको अत्युच्च कोटि के साहित्यसर्जक के रूप
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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