SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 795
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड कृतित्व खण्ड प्रस्तुत खण्ड के प्रथम अध्याय ‘आचार्यप्रवर की साहित्य-साधना' के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि आप उत्तम कोटि के तत्त्वान्वेषी शोधक, प्रज्ञाशील, मनीषी, हृदयस्पर्शी प्रवचनकार, मर्मप्रकाशक आगम व्याख्याकार, मौलिक चिन्तक और जैन इतिहास के महान् प्रस्तोता थे। द्वितीय अध्याय 'काव्य-साधना' में संकलित पदों, भजनों एवं प्रार्थनाओं के रस में निमग्न होने पर यह सहज ही बोध होता है कि आचार्यप्रवर का काव्यपक्ष कितना भावपूर्ण, सुग्राह्य, सरस एवं प्रभावी था। आपने अध्यात्म, सामायिक, स्वाध्याय, देहात्म-भेद, समाज-एकता, कुव्यसन-त्याग, गुरु-भक्ति, सेवा, महिला शिक्षा, षट् कर्माराधन आदि विविध विषयों पर भावभरे पदों एवं भजनों की रचना कर जन-जन को जागृत करने का प्रयास किया है। युवावय में मेरे अन्तर भया प्रकाश', 'मैं हूँ उस नगरी का भूप', समझो चेतन जी अपना रूप', 'सत्गुरु ने यह बोध बताया' आदि पद आपको उच्चकोटि के अध्यात्मयोगी की श्रेणी में प्रतिष्ठित करते हैं।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy