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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ६८३ आशंकाएँ उथल-पुथल मचा रही थीं। श्रावकों की वह एक रात्रि एक मास तुल्य निकली। प्रातःकाल हुआ और श्रावक संशकित हृदय लिए दर्शनार्थ गुरुदेव के पास पहुँचे । गुरुदेव को सकुशल देख श्रावकगण पुलकित हो गए और साथ ही साथ गुरुदेव की निर्भयता पर नतमस्तक भी। वहाँ उपस्थित समुदाय में यह चर्चा जोरों पर थी रात | भर शेर की दहाड़ सुनाई देती रही, पर गुरुदेव के अतिशय प्रभाव से सभी आशंकाएं निर्मूल साबित हुई। जीवन की सांध्यवेला के ही दिनों में गुरुदेव कुछ अस्वस्थ थे। एक दिन पाट पर बैठे थे। पहले से ही पाट पर | काफी आगे की ओर सरक कर बैठे थे तथा और आगे की ओर सरक रहे थे। 'कहीं संतुलन बिगड़ जाने से कुछ अनहोनी न हो जाए, इस आशंका से, समीपवर्ती, वर्तमान उपाध्यायप्रवर श्री मानचन्द्रजी म.सा. इत्यादि संत गणों ने सहज निवेदन किया ‘भगवन्, जरा पीछे सरकें' । “भाई, मैं तो आगे बढ़ना ही जानता हूँ " मृदु हास्य के साथ | उच्चरित वचन निस्संदेह बेजोड़ थे। मद्रास (चेन्नई) में संवत् २०३७ का चातुर्मास चल रहा था। एक दिन नित्य की भांति आप शौचादि से निवृत्त होने | हेतु स्थानक से निकले। बरसात के दिन होने की वजह से मार्ग में जगह-जगह कीचड़ भरा पड़ा था। फलतः आचार्यप्रवर सावधानीपूर्वक कीचड़ से बचकर नीचे देखते हुए चल रहे थे। यकायक आपका सन्तुलन बिगड़| गया और आप फिसल कर मुँह के बल गिर पड़े। गिरने से आपकी दाई आँख के ऊपर गहरी चोट आई और | खून बहने लगा। जैसे ही आपकी सेवा में साथ चल रहे श्री गौतम मुनि जी म.सा. एवं कतिपय अन्य श्रावकों ने | यह देखा तो घबरा गए और आपको पुनः स्थानक लौट चलने का निवेदन करने लगे ताकि यथाशीघ्र आवश्यक उपचार आदि करवाया जा सके। किन्तु आप ठहरे समता के, सहिष्णुता के विशाल सागर । उनकी बात अनसुनी करके चोटग्रस्त स्थान पर खुद ही कपड़ा दबा कर नित्यकर्म निवृत्ति हेतु आगे बढ़ गए। इसी बीच घटना की खबर पाकर पूज्य श्री हीराचन्द्र जी म.सा. (वर्तमानाचार्य) इत्यादि सन्त गण भी आपकी सेवा में पहुँच गए और स्थण्डिल भूमि से निवृत्त हो आपको स्थानक लेकर आए। श्रावकगण भी शीघ्र ही चिकित्सक को ले आए। उन्होंने निरीक्षण करके कहा कि घाव के शीघ्र उपचार के लिए टांके और इंजेक्शन लगाना जरूरी है। लेकिन आपने तुरन्त यह कह कर मना कर दिया कि 'गुरुकृपा से मेरे ठीक है, इन सब की कोई आवश्यकता नहीं, मात्र पट्टी ही काफी है।' अकारण चिकित्सा के ऐसे साधनों का प्रयोग आप नहीं करना चाहते थे और साथ ही अपनी सहनशीलता, अपने आत्मबल पर आपको पूर्ण विश्वास था। जहाँ हम तुच्छ जन छोटी बातों, छोटे-छोटे दर्द | के लिए बड़े से बड़ा उपचार लेने से नहीं झिझकते, बस यही सोचते हैं कि किसी तरह जल्दी से जल्दी व्याधि से, दर्द से राहत मिले, वहीं दूसरी ओर आचार्यप्रवर जैसे सहनशीलता के धारक अधिकाधिक साधनों, सुविधाओं का | प्रयोग कर शीघ्र स्वस्थ होने की बजाय न्यूनतम, मात्र आवश्यक साधनों का प्रयोग करते हुए, स्वयं कष्ट सहने को अधिक उचित मानते हैं और उसको यथार्थ में भी स्वीकारते हैं। सचमुच धन्य है। सहिष्णुता की ऐसी प्रतिमूर्ति और धन्य है उनका ऐसा आदर्श। एकदा एक भाई आप श्री की सेवा में आये। किसी प्रसंगवश वे किसी व्यक्ति विशेष की आलोचना आचार्य श्री के समक्ष करने लगे। आचार्य श्री को यह अरुचिकर व अनुचित लगा। उन्होंने इस चर्चा को समाप्त करने हेतु बात का रुख मोड़ दिया। उन भाई से सामायिक और स्वाध्याय से संबंधित प्रश्न करने शुरू कर दिये। उनके इस क्रिया-कलाप से आगंतुक दर्शनार्थी लज्जित हो गया। प्रत्यक्षतः कुछ न कह कर भी अपने वाक्-चातुर्य || व मनोवृत्ति से आचार्य श्री ने यह स्पष्ट संकेतित कर दिया था कि उनकी रुचि निन्दा-विकथा में नहीं है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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