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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं प्रश्न ही नहीं था। सभी संतों ने तपस्या का अवसर जानकर उपवास कर लिया। अगले दिन भी वर्षा की झड़ी जारी थी। गोचरी ला सकने की संभावना दिखायी नहीं देती थी। सभी स्थानीय वरिष्ठ श्रावक अत्यन्त चिंतित हो उठे। वृद्धावस्था में भी आचार्य श्री के उपवास हो चुका था और आज भी गोचरी ला पाने के आसार प्रतिकूल ही थे। अन्ततः प्रमुख श्रावक रागवश एक उपाय लेकर आचार्य श्री के समीप उपस्थित हुए। उन्होंने निवेदन किया, "भगवन् मंगल कार्यालय में नीचे ही एक तरफ दर्शनार्थियों के लिये चौका चलता है। अतः वहाँ से आहार पानी लेने की कृपा कराएँ और फिर परिस्थितिवश तो यह मर्यादा के प्रतिकूल भी नहीं है।" किन्तु उन्होंने स्वीकृति नहीं दी। मात्र इसलिये कि वे यह जानते थे कि आज उनकी यह परिस्थितिजन्य आवश्यकता भविष्य में दूसरों के लिए अनुकरण का मार्ग बन सकती है। इससे धार्मिक शिथिलता का जन्म होगा और किंचित् मात्र भी शिथिलता निस्संदेह हानिकारक ही होती है। समाचारी में नियम है कि यथासंभव साधु-संत, सतियों से सेवा नहीं लेते। एक बार आप जोधपुर के किसी उपनगर में विराजमान थे । अस्वस्थता के कारण किसी औषधि की आवश्यकता हुई। शहर में विराजित आपकी सम्प्रदाय की सतियाँ नित्य प्रति आपके दर्शनार्थ आती थीं। आखिर वे भी क्यों अवसर छोड़ती उस दिव्यात्मा की सेवा का। संत औषधि लाते, उससे पूर्व ही सहज उत्सुक भाव से महासतियाँजी ले आये, किन्तु जैसे ही आचार्य श्री को इसकी जानकारी मिली, उन्होंने औषधि ग्रहण करने से इंकार कर दिया। मात्र इसीलिये कि कहीं यह परम्परा न बन जाये। इसी भांति कोसाना चातुर्मास से संबंधित घटना भी है। वहाँ आप अत्यन्त अस्वस्थ हो गये। कुछ स्वास्थ्य सुधार होने पर चातुर्मास के पश्चात् पीपाड़ की ओर विहार किया। विहार क्रम में ही पीपाड़ से लगभग ४ कि.मी.पूर्व श्री पारसमल जी के फार्म पर आप विराजे । उन्हीं दिनों पीपाड़ में शासन-प्रभाविका महासती श्री मैना सुन्दरी जी म.सा.विराजित थीं। वहाँ से कुछ सतियाँ जब दर्शनार्थ फार्म पर आयीं तो आचार्यश्री की अस्वस्थता को लक्ष्यगत रखकर अपने साथ पेय पदार्थ भी लेकर आ गई। किन्तु क्रिया के पक्के पक्षधर उस महामानव ने उसे लेने से भी इंकार कर दिया। पूज्य हस्तीमल जी म.सा. एक ऐसी दिव्य-विभूति थे जिन्होंने जीवन में जो सोचा, जिसे अच्छा समझा, उसे अपने जीवन में उतारा भी। इसलिए वे अपने समग्र जीवन में प्रमाद से कोसों दूर रहे। घंटों तक एक ही आसन में बैठे रहते। कभी थक कर विचलित नहीं होते। दिन में कभी स्वाध्याय-लेखन इत्यादि करते तो भी कभी शारीरिक आराम की दृष्टि से पैर फैलाकर या दीवार का सहारा लेकर बैठना मानों आपकी जीवन शैली में ही नहीं था। लम्बे समय तक निकट सम्पर्क में रहने वालों ने भी शायद ही उन्हें कभी दिन के समय सोते देखा हो। उनकी यह विशेषता रुग्णावस्था/वृद्धावस्था में भी यथाशक्य कायम रही। कई बार शारीरिक अवस्था को देखते हुए सन्तगण निवेदन भी कर देते कि गुरुदेव आप काफी देर से एक आसन में विराजमान हैं, कृपया थोड़ा सहारा ले लिरावें तो शरीर को भी कुछ आराम मिलेगा। मगर वे अप्रमत्त योगी, शांत सहज रूप में यही कहते कि "भाई, सच्चा सहारा तो मुझे अपने गुरु का ही है, फिर यह कृत्रिम सहारा किसलिए? मैंने तो अपने गुरु को देखा है, उनकी अप्रमत्तता को जाना है और उनके आदर्श जीवन से यही शिक्षा ली है कि जीवन का पल भर भी प्रमाद में नष्ट न करो। फिर भला उनका शिष्य होकर मैं कैसे उनका उपकार, उनकी शिक्षाएँ विस्मृत करूँ।" कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी सच्ची गुरुनिष्ठा देख कर सहवासी सन्त ही नहीं वरन् वहाँ उपस्थित सभी दर्शनार्थी
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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