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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ६७७ • किसी कार्य को प्रारम्भ करने के पश्चात् उसमें तन्मयतापूर्वक जुट जाना और उस कार्य को पूर्ण करना आपका स्वभाव था। आपने जैन इतिहास लेखन के महत्त्वपूर्ण कार्य को हाथ में लिया, और इस कार्य में जुट गये। कार्य की सम्पन्नता हेतु गुजरात के भंडारों के प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का अवलोकन आवश्यक था। अतः राजस्थान से लंबा विहार कर, मार्ग में अनेक परीषहों को सहन करते हुए आप गुजरात पधारे। वहाँ अहमदाबाद, खंभात, पाटण आदि के भंडारों का अवलोकन करते हुए आपका आणंद में पदार्पण हुआ। बड़ौदा में यतिजी के भण्डार में प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का एक विशाल संग्रह था। उसके अवलोकन हेतु आपने आणंद से बड़ौदा की ओर विहार किया। मार्ग रेल की पटरी के सहारे था, रेतीला था। ग्रीष्म ऋतु की भीषण गर्मी पड़ रही थी। प्रचंड धूप की गर्मी से रेत इतनी तप्त हो रही थी कि उसके कुछ कण उछलकर पैरों पर पड़ते थे, वे भी असहनीय लगते थे। पशु-पक्षी भी उस तप्त वातावरण से संतप्त थे। सिर पर धूप और पैरों नीचे धूल का तापमान निरंतर बढ़ता जा रहा था। ऐसी स्थिति में आपका नंगे पैर चलना वास्तव में कष्टदायक रहा होगा। मार्ग में प्रासुक-जल की उपलब्धि भी दुर्लभ थी। इस प्रकार असह्य ताप व तृषा की वेदना सहन करते आपका अगले नगर में पधारना हुआ। दोपहर का समय हो चुका था। अतः मुनिमंडल को इतना प्रासुक जल न मिल सका कि जिससे तृषा शांत होती। फिर भी आचार्य श्री व मुनिमंडल के चेहरों पर किञ्चित् भी उदासीनता नहीं थी। जल के अभाव में भी मुखारविंद प्रफुल्लित थे। आचार्य श्री नित्य के समान उस दिन भी इतिहास-लेखन के कार्य में व्यस्त हो गये। उन दिनों आचार्यप्रवर शेषकाल में जयपुर विराज रहे थे। प्रतिदिन आपका बड़ा सुन्दर, प्रभावशाली वाणी में प्रवचन होता और अनेक धर्मप्रेमी बन्धु प्रवचन-श्रवण का लाभ उठाते। उसी दौरान एक दिन विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष श्री निरंजननाथ जी आचार्य भी प्रवचन में आए। प्रवचन श्रवण किया और बड़े प्रभावित होकर लौटे। अगले दिन जब प्रवचन में आए, हृदय में कुछ जिज्ञासाएँ थी। सोचा, प्रवचन के पश्चात् गुरुदेव के समक्ष अपनी शंकाएँ रखकर उनके समाधान हेतु उनसे निवेदन करूँगा। यही सोचकर प्रवचन सुनने बैठ गए। मगर जब प्रवचन सुनने लगे, सुनते-सुनते चकित रह गए। सहसा विश्वास नहीं हुआ अपने कानों पर कि मन में जो-जो जिज्ञासाएँ लेकर वे आए थे, प्रवचन में उन्हीं सबका समाधान प्राप्त हो रहा था। उन्हें लगा कि आचार्य श्री बिना कहे ही दिल की बात जान गए हैं। आचार्य निरंजननाथ जी तो अभिभूत हो उठे। जैसे ही प्रवचन समाप्त हुआ, तुरन्त आचार्य श्री के समीप पहुँचे और निवेदन किया, "भगवन् मेरी जो भी शंकाएँ थीं, आपने मेरे बिना कहे ही उनका स्वतः समाधान कर दिया। मैं तो हैरत में हूँ, आपकी यह दिव्य दृष्टि देख कर । धन्य धन्य हैं गुरुदेव आप”। ज्ञान गच्छाधिपति बहुश्रुत पण्डित श्री समर्थमल जी म.सा. और आचार्य श्री हस्ती के पारस्परिक सम्बन्ध बहुत ही मधुर थे। संवत् २०१० के जोधपुर में ६ महान् सन्तों के संयुक्त चातुर्मास में भी आपका स्नेह दूसरों के लिए | आदर्श बन गया था। बाद में भी आपके सम्बन्धों में सदैव मधुरता रही। बहुश्रुत पण्डित रत्न श्री समर्थमल जी म.सा. अपने बालोतरा प्रवास के दौरान अस्वस्थ हो गए। आचार्यप्रवर ने भी उनकी अस्वस्थता के समाचार सुने । न जाने कैसे आपको ऐसा पूर्वाभास हो गया कि अब बहुश्रुत पण्डित जी म.सा. का अन्तिम समय नजदीक ही है। उन्हीं दिनों में एक दिन आप बाला ग्राम से कापरड़ा की ओर विहार कर रहे थे कि चलते-चलते यकायक अपने साथ चल रहे श्रावकों से बोल उठे कि 'जिन शासन रूपी मानसरोवर का हंसा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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