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________________ (तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ६६९ ठीक आधा घंटे बाद वह व्यक्ति पुन: रिक्शा में स्थानक आया और मुझे पूछा कि आचार्य श्री कहाँ हैं? मैंने कहा-गोचरी (भोजन) कर रहे हैं। तब मेरे पास बैठ कर सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाने लगा___“महात्मा जी (आचार्य श्री) सेंधवा (म.प्र.) से विहार कर शिरपुर (महाराष्ट्र) के पास हमारे गांव में पधारे, हमारे मकान के एक कमरे में रात्रि विश्राम किया और सवेरे जाने से पहले मझे कहा कि मांस-मदिरा का सौगंध ले लो। तब मैंने कहा कि हम राजपूत समाज के हैं अतएव मांस मदिरा का सौगन्ध लेना हमारे लिये संभव नहीं है। यदि आप में चमत्कार हो तो हमारा मांस-मदिरा छुड़वा दो। इस पर आचार्य श्री मौन रहे और मांगलिक देकर विहार कर गये। मुझ में अहंकार था, अत: उसके बाद मैंने मांस मदिरा का सेवन किया। मेरे शरीर पर फोड़ा, फुन्सी हो गये, जिससे मैं इलाज कराकर ठीक हुआ। दूसरी बार मांस-मदिरा का सेवन किया तो पुन: फोडा, फुन्सी हो गये। फिर मेरे दिमाग में आया कि शायद मैंने महात्मा जी को चैलेंज किया था, उसी का परिणाम है कि शरीर पर फोडा-फुन्सी हो गये। तब मैंने मांस-मदिरा का सेवन करना छोड़ दिया।" कुछ समय पश्चात् कार्यवश उसका जलगाँव आना हुआ। उसने बस स्टेण्ड पर आचार्य श्री के विराजने की सूचना देखी और महात्माजी के दर्शन के लिये वह स्थानक पर चला आया। जब आचार्य श्री (महात्माजी) गोचरी से निवृत्त हुए, तब उस व्यक्ति ने आचार्य श्री के दर्शन किये और मांगलिक लिया। पास में खड़े श्री चंपक मुनि ने भी उस घटना का समर्थन किया। इससे मेरी आस्था को बल मिला। बोरीदास मेवाड़ा, गुजराती कटला, पाली (राज.) भविष्य द्रष्टा • श्री दुलीचन्द बोहरा सन् १९७९ की बात है जब आचार्यप्रवर १००८ श्री हस्तीमल जी म.सा. अजमेर में विराज रहे थे। मैं आचार्य भगवन्त के दर्शन हेतु मद्रास से लाडनूं होकर अजमेर गया। वहाँ आचार्य भगवन्त के दर्शन किये। मुझे मेड़ता सिटी एक जरूरी काम से जल्दी ही जाना था। मैंने आचार्यप्रवर से मांगलिक देने की प्रार्थना की तो आचार्य भगवन्त ने फरमाया कि अभी और नवकार मंत्र की माला फेरो। मैं कुछ भी नहीं बोला और माला फेरने बैठ गया। करीब १ घंटा समय बीतने के बाद आचार्य भगवन्त ने मुझे बुलाया और मांगलिक दे दिया। मैं अजमेर बस स्टैण्ड पर गया तो वहां वह बस निकल गयी और उसके बाद मुझे मेड़ता सिटी जाने के लिये २ घंटे बाद बस मिली। मैं मेडता सिटी बस स्टेण्ड से उतर कर सीधा अपने रिश्तेदार के पास गया जहाँ मुझे उनसे काम था। उन्होंने बोला कि आप कौनसी बस से आये अजमेर से। मैंने कहा कि पहली बस तो मेरी निकल गयी २ घंटे बाद बस मिली, उसी से मैं आ रहा हूँ। मैंने पूछा, क्या बात है ? आपने ऐसा कैसे पूछा ? तो वे बोले कि आप जिस बस से आये उसके पहले की बस तो गड़े में गिर गयी और २ आदमी की वहीं मृत्यु हो गयी। मैंने अपने मन में सोचा कि आचार्यप्रवर कितने दिव्य दृष्टि वाले हैं; सम्भवत: इसीलिये मुझको मांगलिक समय न देकर माला फेरने को बोला। उस दिन से तो मेरी आचार्यप्रवर के प्रति इतनी आस्था एवं श्रद्धा हो गयी कि उसका वर्णन मैं नहीं कर सकता। -'Man Mandir No. 7, Audippan Street, Purasawakkam, Chennai 600007
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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