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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड को आचार्य श्री कजोड़ीमलजी महाराज के कर-कमलों से आपकी दीक्षा सम्पन्न हुई। गुरुदेव का सान्निध्य तो था ही, बड़े गुरु भ्राता श्री विनयचन्द जी म.सा. का आपके ज्ञान-ध्यान में विशिष्ट सहयोग रहा व आपका अधिक विचरण-विहार भी उन्हीं के सान्निध्य में हुआ। पूज्य श्री विनयचंदजी म.सा. के प्रति आपका शिष्यवत् समर्पण भाव था। पूज्य श्री के १४ वर्ष के सुदीर्घ जयपुर स्थिरवास में आपने पूर्ण श्रद्धा व समर्पण से उनकी अहर्निश सेवा की। कोई अनुमान नहीं लगा पाता था कि वे पूज्य श्री के गुरु भ्राता हैं या शिष्य। ऐसा सुना जाता है कि पूज्य श्री विनयचंदजी म.सा. यदि रात्रि में करवट भी बदलते तो आप जागृत हो जाते। पूज्य आचार्य श्री विनयचंदजी म.सा. के स्वर्गवास के पश्चात् स्वामीजी श्री चन्दनमलजी म.सा. के आग्रह से आपने आचार्य पद स्वीकार किया। वि.सं. १९७२ फाल्गुन कृष्णा ८ को स्वामीजी महाराज एवं आचार्य पूज्य श्री श्रीलालजी म.सा. द्वारा चतुर्विध संघ की उपस्थिति में आपको आचार्य पद की चादर ओढ़ाई गई। पूज्य आचार्य श्री शोभाचंदजी महाराज निर्मल निस्पृह साधक थे। आपके संयम-जीवन का मुसद्दी वर्ग व अन्य मतावलम्बियों पर भी | व्यापक प्रभाव था। जोधपुर के सैकड़ों मुसद्दी परिवार व माहेश्वरी भाई आपको गुरु मानते और पूछे जाने पर बेहिचक अपने गुरु का नाम पूज्य शोभाचन्द्रजी बताते। यह आपकी उदारता, सदाशयता और विराटता का प्रत्यक्ष प्रमाण था। किसान परिवारों के अनेक ग्रामीण जन भी आपके भक्त थे। आपके सदुपदेशों से जैन श्रावक बने मूलजी विश्नोई की भक्ति की सराहना जैनाचार्य जवाहरलालजी ने अपने प्रवचनों में की। पूज्य आचार्य श्री शोभाचन्द्रजी महाराज महान गुणों से विभूषित थे। वे परमत सहिष्णुता, वत्सलता, गंभीरता, सरलता, सेवाभाविता, विनयशीलता, मर्मज्ञता, आगमज्ञता और नीतिज्ञता के गुणों से सम्पन्न महापुरुष थे। आपका जीवन अप्रमत्त था, कभी प्रमाद का सेवन नहीं करते । स्वयं उनके शिष्य आचार्य भगवन्त पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. के शब्दों में “मेरे गुरुदेव ने कभी टेका नहीं लिया”, वे सदा अपना समय जप, तप, साधना एवं स्वाध्याय में ही | व्यतीत करते । उनका जीवनादर्श था खण निकम्मो रहणो नहीं , करणा आतम काम, भणणो गुणणो सीखणो, रमणो ज्ञान आराम । आपको उत्तराध्ययन सूत्र निज नामगोत्रवत् कण्ठस्थ था ; अक्षर, पद, बिन्दु की भी उच्चारण में स्खलना नहीं होती। आप सदा रात्रि के पिछले प्रहर में प्रतिदिन स्वाध्याय करते थे। आपके उपदेशों में सरलता के साथ-साथ गंभीरता का पुट भी होता था। आपके प्रवचन प्राचीन शैली में होते हुए भी नूतनहृदय को प्रसन्न एवं पुलकित बनाने में समर्थ थे। जोधपुर के अनेकों न्यायाधिपति, बैरिस्टर, शासकीय अधिकारीगण आपके परम भक्त थे। आप व्यक्तियों को परखने के निष्णात पारखी एवं जीवन-निर्माण के कुशल शिल्पी थे। बालवय में दीक्षित अपने शिष्य बालक हस्ती को आपने जिस कुशलता से गढा एवं अल्प सान्निध्य में ही अपना ज्ञान व अपने जीवनादर्श जिस ढंग से बालक हस्ती के हृदय में उँडेले, वह गुरु शिष्य-परम्परा का आदर्शतम उदाहरण है। मात्र पांच वर्ष के दीक्षावधि वाले शिष्य के भीतर रही महान आत्मा को एवं उनके भीतर रही हुई प्रतिभा को परख कर आपने जीवन के जौहरी की निष्णातता का परिचय दिया। रत्नवंश के भावी आचार्य के रूप में बालक मुनि हस्ती का चयन कर आपने रत्नवंश पर महान उपकार किया। हम सबने आचार्य हस्ती के पावन सान्निध्य का लाभ लिया है, उनके गुणों एवं जीवन में हम पूज्य आचार्य शोभाचन्दजी म. के जीवनादर्शों एवं साधना सम्पूरित गुणों की सहज झलक अनुभव कर सकते हैं। आपका
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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