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________________ -- परम कृपालु गुरुदेव mmameer RAANDA------ - - --- - मेरे पर परम गुरुदेव श्रद्धेय आचार्य श्री की असीम कृपा रही। सन् १९४२ में अगस्त क्रान्ति के दौरान मैं वैरागी के रूप में कतिपय वर्षों के लिए आचार्य गुरुदेव के सान्निध्य में रहा। गुरुदेव का विद्यानुराग इतना प्रबल था कि वे स्वयं मुझे प्राकृत का अध्ययन करवाते थे और पंडित दुःखमोचन जी झा के पास अन्य सन्तों के साथ मुझे भी संस्कृत के अध्ययन का अवसर मिला था। धार नगरी के : कुछ श्रावकों की माँग पर मुझे स्वाध्यायी के रूप में पर्युषण करवाने धार नगरी भेजा गया। धार का वह पर्युषण बहुत ही सफल रहा और मेरे खयाल से उसी समय से पर्युषण में स्वाध्यायी भेजने का कार्यक्रम प्रतिवर्ष चलने लगा। उज्जैन चातुर्मास समाप्त होने पर मैं गुरुदेव के साथ-साथ ही पैदल विहार करने लगा। महान् संतों की संगति । का प्रभाव उनके आचरण को देख कर पड़ता है। उनके सान्निध्य में कुछ ऐसे सात्त्विक परमाणुओं का आदान-प्रदान होता है कि उनके संग रहने वाला व्यक्ति भी बिना कहे ही वैसा बनने लगता है। लोंच तो मैं नहीं कर सकता था, पर मैंने दाढ़ी और बाल बनवाने बंद कर दिये । पाँव में जूते पहनने बंद कर दिये । मात्र धोती, कुर्ता और २ चद्दर से सर्दी-गर्मी के सब दिन गुरु कृपा से आनंद पूर्वक बीत गये। गुरुदेव विहार में बहुत तेज चलते थे, मैं भी उनके साथ-साथ उसी चाल से चलने का प्रयत्न करता था। उज्जैन से इंदौर, रतलाम, मन्दसौर, जावरा आदि अनेक ग्राम नगरों से होते हुए गुरुदेव का विहार उदयपुर की ओर हो रहा था। बीस-बीस मील का उग्र विहार और फिर किसी गाँव में प्रासुक जल का अभाव तो कहीं प्रासुक गोचरी का अभाव । कहीं ठहरने के स्थान का अभाव। कड़कड़ाती सर्दी में तालाब के किनारे एक कच्चे टूटे-फूटे फर्श वाले तिबारे में दो चद्दर से रात बिताना ! किंतु गुरुदेव का ऐसा प्रभाव कि सब संत आनंद पूर्वक सहन कर लेते । किसी को कोई शिकायत नहीं। मेरा जीवन भी गुरुदेव की संगति से उस समय कितना परिवर्तित हो गया था ! कितना सादा और सरल था वह जीवन ! मेरा जीवन भी उस समय संत-जीवन जैसा ही हो गया था। उदयपुर चातुर्मास में गुरुदेव ने अध्ययन के साथ-साथ मुझे गुजराती पढ़ना भी सिखाया और गुजराती से हिंदी में अनुवाद करने की प्रेरणा दी। मैंने गुजराती कर्मसिद्धांत पुस्तक से कई लेख हिंदी में अनूदित कर भोपालगढ भेजे जो उस समय की जिनवाणी में कपूरचंद जैन के नाम से प्रकाशित हुए। उदयपुर चातुर्मास के बाद गुरुदेव का विहार मारवाड़ की तरफ होने की संभावना जान कर मैंने गुरुदेव से प्रार्थना की कि “मैं तो अभी मारवाड़ नहीं जा सकूगा, तब मेरा अध्ययन क्या अधूरा ही रह जायेगा?' गुरुदेव ने हँसते हुए कहा कि सब व्यवस्था हो जायेगी।" उदयपुर से चारभुजा तक मैंने गुरुदेव के साथ-साथ विहार किया। उसके बाद मुझे इंदौर में पंडित पूर्णचंद्रजी दक के पास आगे के अध्ययन के लिये जाने की आज्ञा हई। मैं भारी मन से गुरुदेव का साथ छोड़ कर इंदौर के लिये चल पड़ा, किंतु गुरुदेव के सान्निध्य के मेरे वे दो वर्ष अभी भी मुझे रोमांचित कर देते हैं। मेरे जीवन के वे दिन स्वर्णिम दिन थे, जिन्हें स्मरण कर आज वृद्धावस्था में भी मेरा रोम-रोम गद्गद् हो जाता है। ऐसे महान विद्यानुरागी थे आचार्य प्रवर ! मुझे ही नहीं उन्होंने अन्य भी कई लोगों को जैन धर्म के अध्ययन ) -
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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