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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड | का स्वर्गगमन होने पर चतुर्विध संघ ने वि.सं. १९३७ ज्येष्ठ कृष्णा ५ को आपको आचार्य पद प्रदान किया। आपने | ३६ वर्ष तक कुशलतापूर्वक सम्प्रदाय का संचालन किया । इन ३६ वर्षों में पूर्व क्षेत्रों में उग्र विहार कर अनेकों भव्यात्माओं को संयम जीवन का अधिकारी बनाया तो हजारों व्यक्तियों को २२ वर्ष पर्यन्त आपने विभिन्न श्रमणोपासक व सम्यक्त्वी बना कर वीर शासन की महती प्रभावना की। जीवन के अन्तिम चौदह वर्ष नेत्र ज्योति की | मंदता के कारण आप जयपुर स्थिरवास विराजे । पूज्य श्री में यह विरल विशेषता थी कि आप शास्त्रों के मर्म को | समझने वाले समर्थ विद्वान बहुश्रुत महापुरुष होने के साथ ही साध्वाचार के सूक्ष्म नियमों के यथाविधि परिपालक थे। जैनागम में वर्णित कर्म- प्रकृतियों के आप विशिष्ट विवेचक थे। आपकी स्मरणशक्ति व धारणाशक्ति अद्भुत व विलक्षण थी। बीसों बरस बाद भी यदि कोई पूर्व परिचित श्रावक आकर चरण छूता तो उसकी बोली मात्र सुन कर आप उसकी पूर्व पीढियों तक की बात बता देते थे तो भगवती जैसे विशाल आगम के संदर्भों को शतक उद्देशक पत्रक वार फरमा देते थे । कौनसा विषय कहां प्रतिपादित है, आप हस्तामलकवत् या निजनामवत् बता देते थे । अन्य सम्प्रदायों के प्रति आपकी उदारता अतुलनीय है । स्थानकवासी समाज के विभिन्न परम्पराओं के अनेकों | विद्वान् मुनिराज आपसे श्रुत धारणा के लिए जयपुर पधारते तो आप भी आग्रह पूर्वक उन्हीं का प्रवचन कराते एवं उदारतापूर्वक आगम रहस्यों से उन्हें परिचित कराते । यही नहीं, मूर्ति पूजक श्रमणों से आप पूर्ण सद्भाव रखते एवं उन्हें शास्त्रों के अनुशीलन हेतु प्रेरित करने व उनकी शंकाओं का समाधान करने में भी सदा तत्पर रहते । | खरतरगच्छीय श्री शिवजी रामजी महाराज को भी आपने आचारांग सूत्र का स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी व सूत्र पढ़ने की उनकी रुचि को जागृत किया, जिसका वे आजीवन उपकार मानते रहे I धार्मिक कट्टरता के युग में आपकी उदारता अनूठी थी । वे कभी किसी के भी मत का खण्डन किए बिना स्वमत की विशेषता प्रतिपादित करते । व्यापक दृष्टिकोण के कारण आपके प्रवचनामृत का सब धर्मावलम्बी लाभ उठाते। पंजाबी मुनि श्री मयाराम जी म.सा, पूज्य श्री हुकमीचन्दजी म.सा. की परम्परा के आचार्य श्री श्रीलालजी | म.सा., पूज्य श्री धर्मदासजी म. की सम्प्रदाय के पंडित रत्न श्री माधव मुनि जी महाराज आदि विभिन्न परम्पराओं के महापुरुष आपकी वत्सलता, उदारता व आगम मर्मज्ञता से प्रभावित थे । पूज्य श्री ने यह नियम बना रखा था कि जब | | कोई शुद्ध साधु-मर्यादा का पालन करने वाले संत आपके स्थिरवास काल में जयपुर पधारते तो उनके प्रति | प्रकट करने के लिये आप अपना व्याख्यान बन्द रखते और भक्त श्रावकों को नवागन्तुक संतों के व्याख्यान - श्रवण व | सेवाभक्ति का पर्याप्त लाभ लेने हेतु प्रेरित करते । वयोवृद्ध श्रुतवृद्ध, दीक्षावृद्ध एवं पदवृद्ध बहुश्रुत आचार्य पूज्य श्री विनयचंदजी म. की ऐसी उदारता, निरभिमानता, वात्सल्य भाव व प्रेम परायणता दुर्लभ उदाहरण हैं । विक्रम संवत् १९७२ मार्गशीर्ष कृष्णा १२ को ७५ वर्ष की वय में जैन जगत के इस ज्ञानसूर्य का अवसान हो गया । तपस्वीरत्न श्री बालचन्दजी महाराज, स्वामी जी श्री चन्दनमलजी महाराज आपके प्रमुख सहयोगी संत थे । तपस्वी श्री पंजाब के निवासी थे। आपने दीक्षा के प्रथम दिन से ही व्याधि और पारणे के सिवाय चार विगयों (दूध, दही, मिष्ठान्न और तेल) का यावज्जीवन के लिये त्याग कर दिया । प्रासुक हरे साग का भी आपके आजीवन त्याग था। आप प्रतिमास कम से कम पांच उपवास तो करते ही, विशेष तपस्या भी प्राय: करते रहते । परीषहों को आगे होकर आमंत्रित करने हेतु आप गर्मी में ग्रीष्म आतापना व सर्दी में शीत आतापना लेते, तो कई बार कर्मों के भार का मानो आकलन करने हेतु आप कठिन अभिग्रह भी धारण कर लेते, पर आपके अन्तराय कर्म इतना हलका हो चुका
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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