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________________ अगणित वन्दन सद् गुरुराज को . श्री नेमीचन्द जैन • संयम धर्म पर अनूठी दृढ़ता श्रमण सूर्य पूज्य प्रवर्तक मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी म.सा. का संवत् २०४० का अंतिम चातुर्मास मेड़ता सिटी में था। एक रात हम श्री मरुधर केसरी जी म.सा. की सेवा में बैठे थे। धर्म के प्रति दृढ़ता का विषय चला। पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी म.सा. के जीवन का एक प्रसंग भी आ गया। महाराज श्री ने बड़े ही भाव भरे शब्दों में | फरमाया कि जब सतारा (पूना) के पास कुछ नासमझ लोग एक भयंकर विषधर नाग को बड़े बेरहमी से मार रहे थे, उस समय आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. उन लोगों के बीच पहुंच गये। प्रेम से समझाते हुए पूर्ण निर्भयता के साथ कपड़ा डालकर क्षुब्ध नाग को हाथ में ले लिया। बिना किसी संकोच के बाहर जंगल में जाकर छोड़ आये। श्री मरुधर केसरी जी म.सा. ने फरमाया कि ऐसी होनी चाहिए संयमधर्म के प्रति दृढ़ आस्था। जब मरूधर केसरी जी म.सा. जैसे महापुरुष ने भी इस प्रसंग का उल्लेख किया तब इस घटना की महत्ता व विश्वसनीयता स्वतः सिद्ध हो जाती है। ____ आचार्यप्रवर जीवों पर करुणा के क्षेत्र में फूल से भी कोमल तथा छह काय के जीवों की रक्षा के क्षेत्र में वज्र से भी कठोर थे। ___ उपर्युक्त घटना क्रोध के ऊपर क्षमा की तथा विष के ऊपर अमृत की विजय थी। • हृदय में बसा संथारा पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. का संथारा निमाज में चल रहा था। तप संथारे का तेरहवां दिन । मेरे रिश्तेदार गोटण निवासी श्री जोगीलाल जी कांकरिया आचार्य श्री के दर्शनार्थ निमाज आये और सहज भाव से मुझे सुझाव दिया-“आप पूज्य श्री को १०८ बार वंदन करने का महान् लाभ प्राप्त कर लें। क्योंकि यह धर्म सूर्य शीघ्र ही अस्त होने वाला है।” उनका कथन मेरे लिए संकल्प में बदल गया। उसी रात को संतों की अनुमति लेकर आचार्य श्री के सान्निध्य (सन्निकट) में पहुंच गया। वंदन करना प्रारम्भ किया। १०८ बार वंदन करने का संकल्प साकार हुआ। मन में अत्यन्त प्रसन्नता, प्रमोद तथा उत्साह था। किन्तु मैं स्तब्ध भी रह गया यह जानकर कि आचार्य श्री पूर्ण जागृत अवस्था में हैं। शारीरिक वेदना भी असाधारण है। ग्रीष्म ऋतु की भीषण तपन है। प्राणी आकुल व्याकुल हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में भी यह प्रतीत नहीं हो रहा था कि आचार्य श्री इस कक्ष में लेटे हुए हैं। उनके अंगों के हलन-चलन की भनक तक नहीं। ___ शारीरिक वेदना का लेश मात्र भी इजहार नहीं। आत्म-चिन्तन में लीन । मन, वचन व काया का उत्कृष्ट | गोपन । समत्व भावों में अद्भुत रमण । पूर्णतया मौनस्थ । मृत्यु का भय नहीं, जीने की आकांक्षा नहीं । __ऐसे उत्कृष्ट योगी को अगणित वंदन करता हुआ मैं संथारे (संलेखणा) के कक्ष से बाहर आया, लेकिन पूज्य गुरुदेव का संथारा हृदय में सदा सदा के लिए बस गया।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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