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________________ आचार्य श्री व नारी जागरण • श्रीमती सुशीला बोहरा इस युग के महान् मनीषी, भक्तों के भगवान, ज्ञान के आराधक, क्षमा के धारक, शुद्ध चारित्र धर्म के अनन्य पुजारी, सामायिक स्वाध्याय के प्रबल प्रेरक, शुद्ध सात्त्विक विचारों के धनी, सरल हृदय आचार्यप्रवर आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जो भी उनके सम्पर्क में आया वह भूल नहीं पाया। वे शिशु के समान निष्कपट निश्छल एवं सरल थे, लेकिन दृढता हिमालय की तरह थी। एक बार जो निर्णय ले लेते उस पर अडिग रहते थे, उसके निर्वहन हेतु उन्हें कई कठिन परीषहों का सामना भी करना पड़ा, लेकिन चट्टान की तरह अकम्प एवं अडोल रहे। यह व्यवहार उनके | जीवन की अमूल्य निधि एवं धर्म की अक्षुण्ण थाती बन गया। महिलाओं के उत्थान हेतु वे विशेष जागृत थे। वे कहा करते थे कि महिला माँ बनकर बच्चों का पालन | |पोषण करती है और गुरु बनकर उनका मार्गदर्शन भी कर सकती है। गांधीजी ने भी कहा था कि माँ की गोद में ५ वर्ष की आयु में बालक जो कुछ सीख लेता है उसे १०० अध्यापक मिलकर जिन्दगी भर नहीं सिखा सकते। आचार्यप्रवर बहिनों को रूढ़ियों से ऊपर उठकर शुद्ध सात्त्विक जीवन-निर्माण की प्रेरणा देते थे। तपस्या में उनके द्वारा किये जाने वाले आडम्बरों एवं दिखावे का हमेशा विरोध करते थे। वे कहा करते थे कि तपश्चर्या करने वाली बहिनों को शास्त्र-श्रवण, स्वाध्याय, ध्यान, जप आदि के द्वारा तप को सजाना चाहिये न कि पीहर के गहनों-कपड़ों की इच्छा या कामना से। इससे तपश्चर्या की शक्ति क्षीण होती है। महिमा, पूजा, सत्कार, कीर्ति, नामवरी अथवा प्रशंसा पाने के लिये तपने वाला जीव अज्ञानी है। उन्हीं के शब्दों में - ढोल ढमाके क्या रंग लायेंगे, तप के रंग के सामने॥ तप के साथ भजन-कीर्तन, प्रभुस्मरण, स्वाध्याय आदि तो सबसे ऊँचा किरमिची रंग है। ऐसा तप ही | आत्मसमाधि का कारण, मानसिक शांति एवं कल्याण का हेतुभूत होता है। आप जहां परम्परावादी महान् संतों की शृंखला में शीर्षस्थ थे, वहीं उच्चकोटि के विचारक भी रहे। आपने | सदियों से जीवन निर्माण क्षेत्र में पिछडी हुई मातृशक्ति को कार्य क्षेत्र में उतरने का आह्वान किया। सेवा एवं धार्मिक कार्यों में आगे आने की प्रेरणा मुझे भी गुरुदेव आचार्य श्री हस्तीमल जी मसा. से मिली। ३५ वर्ष पूर्व एम. ए. पास बहिनें बहुत कम थीं। जब मैंने एम. ए किया तो उनका यही आशीर्वाद रहा कि तुम पढ़ी लिखी हो, तुम्हें आगे आकर अन्य बहिनों के लिये मार्ग प्रशस्त करना है। मझ जैसी संकोची लड़की के लिये यह बात अनहोनी थी, लेकिन गुरुदेव की कृपा से सामाजिक या धार्मिक क्षेत्र में जो भी कार्य प्रारम्भ किया वह स्वत: ही | उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर अग्रसर होता गया। अन्तिम समय में निमाज में भी उनका यही आशीर्वाद रहा। गुरुदेव जब अस्वस्थ चल रहे थे तब मैं शारीरिक कारणों से दो माह गुरुदेव की सेवा में नहीं जा सकी। मेरे पास समाचार आये कि गुरुदेव ने आपके बारे में पृच्छा की है। मेरे धन्य भाग थे, मैं शारीरिक अस्वस्थता की स्थिति में भी एक दिन पहुँच गई। आचार्य श्री की बैठने की स्थिति नहीं थी अतएव लेटे हुए थे। जब मैं पहुँची तो वर्तमान आचार्य श्री हीराचन्द्रजी महाराज सा. एवं शुभ मुनिजी पास में विराज रहे थे। मुझे देखकर उन्होंने गुरुदेव से कहा आप सुशीला
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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