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________________ 4- M नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं श्रेष्ठिवर्य श्री गंगारामजी ने गोद ले लिया और शिशु रत्न मां हीरादे की गोद से निकलकर मां गुलाब की गोद में पहुंच गया। वि.सं. १८४७ में आचार्य पूज्य श्री गुमानचन्दजी म.सा. का ठाणा ७ से चातुर्मास नागौर में हुआ। आप भी अपने परिजनों के साथ पूज्य श्री की सेवा में जाते। पूज्य श्री के संयममय जीवन के सम्पर्क व उनके वैराग्यमय उपदेशों से आपके हृदय में वैराग्य संस्कार प्रस्फुटित हुए। इसी बीच पिता श्री गंगारामजी का देहावसान हो गया, जिससे आपकी भावना में और अभिवृद्धि हुई व आपने माँ गुलाब बाई के सामने अपनी भावना प्रस्तुत कर दीक्षार्थ अनुमति मांगी, पर ममतामयी माँ अनुमति के लिए तैयार न थी। बाबा श्री नत्थू जी से आज्ञा प्राप्त कर मुमुक्षु रत्नचन्द्र गांवों में भिक्षावृत्ति करते हुये मण्डोर पहुँचे, जहां वि.सं. १८४८ वैशाख शुक्ला पंचमी के शुभ मुहूर्त में आपने मुनि श्री लक्ष्मीचंदजी म.सा. से दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा ग्रहण कर तीन वर्ष तक मेवाड़ प्रदेश में गुरुजनों के साथ विचरण-विहार कर आप संयम-जीवन व ज्ञान, दर्शन, चारित्र में पारंगत बन गये। आप चौथा चातुर्मास पीपाड़ कर पांचवें चातुर्मासार्थ पाली पधारे। इधर माता भी राज्याधिकारियों के साथ पहुंची। आपके प्रवचनामृत एवं संयम जीवन से माता भी प्रभावित हुई और उन्होंने अपनी गलती के लिये मुनिजनों से क्षमायाचना की। अल्प काल में ही आपके साधनानिष्ठ जीवन से जन-जन ही नहीं स्वयं गुरुदेव भी प्रभावित हो गये और वे स्वयं फरमाते “रत्न ! अब तो हम भी तुम्हारे नाम से पहचाने जाते हैं। लोग रत्नचन्दजी के साधु इस नाम से हमें ।। जल्दी पहचान लेते हैं।" आप स्वाभाविक विनम्रता से निवेदन करते “सब गुरुदेव की कृपा है।" कैसा उत्कृष्ट संयम ! कितना समर्पण व कैसा पुण्य प्रभाव ! वि.सं १८५४ में पूज्यपाद आचार्य श्री गुमानचंदजी म.सा. ने क्रियोद्धार किया, उसमें आपकी प्रमुखतम भूमिका रही एवं आज भी क्रियोद्धारक महापुरुष के रूप में आपका ही नाम प्रख्यात है। ज्ञातव्य है कि क्रियोद्धार के समय आपकी वय मात्र २० वर्ष व दीक्षा पर्याय मात्र ६ वर्ष की थी। वि.सं. १८५८ में पूज्य श्री गुमानचन्दजी म.सा. के स्वर्गवास के पश्चात् समूचे चतुर्विध संघ ने आपको आचार्य मनोनीत किया, पर आपने अपने चाचा गुरु पूज्य श्री दुर्गादास जी म.सा. की उपस्थिति में आचार्य पद स्वीकार नहीं किया। २४ वर्ष की सुदीर्घ अवधि तक दोनों ही महापुरुष एक दूसरे को पूज्य कहते रहे। 'राजतिलक की गेंद बना कर खेलन लगे खिलाड़ी' की उक्ति चरितार्थ हो रही थी। धन्य हैं ऐसे निस्पृह साधक, धन्य हैं यह गौरवशाली परम्परा, जिसे ऐसे संतरत्नों का सुयोग्य सान्निध्य प्राप्त हुआ। अनूठी उदारता व विनय भाव का ऐसा आदर्श अन्यत्र दृष्टिगोचर होना दुर्लभ है। पूज्य दुर्गादासजी म.सा. की मौजूदगी में आपने उनके प्रतिनिधि रूप में सम्प्रदाय का संरक्षण, संवर्धन व संचालन करते हुये शासन की प्रभावना की, पर उनके स्वर्गवास के पश्चात् आपको संघ का आग्रह स्वीकार करना ही पड़ा व संवत् १८८२ मार्गशीर्ष शुक्ला त्रयोदशी को आप विधिवत् आचार्य पद पर आरूढ हुए। ____ आप शास्त्रों के गहन ज्ञाता, अत्युच्च कोटि के विद्वान, जिन शासन की प्रभावना हेतु सदैव सन्नद्ध, विशुद्ध || साध्वाचार के धनी, कीर्ति से निस्पृह, धीर-वीर-गम्भीर महापुरुष थे। आपने साध्वाचार में आई विकृतियों को दूर करने हेतु प्रबल पुरुषार्थ किया तथा कुरीतियों, आडंबर व शिथिलता पर गहरी चोट की। शान्ति व धैर्य से विरोध का सामना करते हुये आप शुद्ध साध्वाचार पालन के अपने संकल्प पर डटे रहे । आपने श्रमण वर्ग को शिक्षा देने के a ritain-IN-HIKARANGara
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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