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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ५११ होता - “सबको जाना है , सबको जाना है।" ऐसा लगता मानो यह सत्य उनके हृदयपटल पर अंकित हो गया हो। यह भी लिख दूं कि ऐसी ही परिस्थिति में यही मंत्र मेरा भी सहारा बना। विज्ञजन यह कहें कि इसमें नवीनता क्या है, यह तो चिरंतन सत्य है, किन्तु ये ही चिरंतन सत्य जब महापुरुषों के मुखारविंद से प्रकट होते हैं तो वे प्रभावी बन जाते हैं, असर करते हैं। क्योंकि उनके पीछे त्याग, तप और साधना होती है दिल से जो बात निकलती है असर रखती है, पर न सही ताकते परवाज़ मगर रखती है। • स्वाध्याय की प्रेरणा एक बार गुरुदेव के सामने मेरे मित्रों ने ही मेरे खिलाफ शिकायत कर दी - "आसूलाल सामाजिक कार्यों में भाग नही लेता, सदा पीछे रहता है।” आरोप सत्य भी था। मैं सामाजिक कार्यों में अधिक दिलचस्पी न लेकर एकांत | में पुस्तकों में अधिक समय लगाता रहा हूँ। मित्रबन्धु मुझे सामाजिक कार्यों से जोड़ने के असफल प्रयास भी करते रहते थे और उनका अन्तिम प्रयास था गुरुदेव के समक्ष मेरे प्रति शिकायत । किन्तु गुरुदेव ने समाधान कर दिया-“यह तो स्वाध्याय करता है, इसे स्वाध्याय में लगे रहने दो ।” इस प्रकार मेरे लिए लक्ष्य निश्चित हो गया-स्वाध्याय और मार्ग भी प्रशस्त हो गया। इस प्रकार गुरुदेव अपने भक्तों की पात्रता को जानते थे, पहचानते थे और यथायोग्य मार्ग निर्धारित करते थे किसी की बेकितज्जली हम पर न नूर पर। देते हैं वदा जर्फे कदावार देखकर ।। __ और फिर गुरुदेव यद्यपि दूरस्थ प्रदेशों में विराजते-जैसे दक्षिण भारत में, फिर भी उनके संदेश प्रेरणा प्रसाद के | रूप में प्राप्त होते रहते और मेरी स्वाध्याय के क्षेत्र में प्रगति के बारे में प्रश्न मिलते रहते। जो दूर है उनको उपहार देना याद करना बड़ी बात है। वरना प्रत्येक वृक्ष अपने पैरों पर तो फलों को खुद गिराता ही है। इसी संदर्भ में जोधपुर चातुर्मास में गुरुदेव ने सूत्रकृतांग का अंग्रेजी अनुवाद करने की प्रेरणा दी। आदेश था श्रावकवर पारख जौहरी मल जी साहब हिन्दी में अन्वय-अनुवाद करें और मै अंग्रेजी में । कार्य दुस्तर था, क्योंकि मैं संस्कृत-प्राकृत से एकदम अनभिज्ञ और आगम की भाषा उसमें सूत्रकृतांग की - बुज्झिज्ज तिउट्टेजा बंधणं परिजाणिया - २५०० वर्ष पूर्व की अत्यन्त प्राचीन, सारगर्भित एवं दुरूह। किन्तु गुरुदेव ने एक-एक गाथा का शाब्दिक अर्थ ही नहीं बताया, बल्कि उसका भाव व तात्पर्य भी और जिस प्रकार कोई बालक को अंगुलि पकड़कर चला देता है, वैसे ही कई गाथाओं का अंग्रेजी अनुवाद हुआ जो कुछ समय पूर्व जिनवाणी में सम्पादक डॉ. धर्मचन्द जी के विवेचन के साथ क्रमबद्ध प्रकाशित हुआ हैं। इसी शृंखला में गुरुकृपा से मैं सरल अंग्रेजी में जैनधर्म का परिचय देने वाली दो पुस्तकें लिख सका। फर्स्ट | स्टेप्स ऑफ जैनिज्म के प्रथम भाग में जैनधर्म के तात्त्विक सूत्र का परिचय देने का प्रयास है। इसके अन्तर्गत छः द्रव्य, सात या नौ तत्त्व, तीन रत्न, तीन लक्षण और पंच परमेष्ठी का संक्षिप्त विवरण है। गुरुदेव ने जोधपुर आते हुए। बनाड में इसका विवरण भी सुना और मुझे धन्य किया कई अंग्रेजी जानने वाले श्रावकों को पुस्तक अपने कर कमलों से देकर। यह गुरुकृपा का ही फल है कि पुस्तक देश-विदेश में स्वीकार हुई है। बाद में पुस्तक का द्वितीय भाग प्रकाशित हुआ जिसमें कर्मवाद, अनेकांतवाद, गुणस्थान, समवाय आदि का प्रथम परिचय है। पाँच समवाय के बारे में विशेष निवेदन है कि इस विषयांतर्गत काल, स्वभाव, नियति, पुराकृत कर्म और पुरुषार्थ पर गुरुदेव ने स्वयं)
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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