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________________ ५८६ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं इत्यादि जीवन जीने की कला आप से प्राप्त होती थी। गुरुदेव, परोपकारी सन्त थे। हमेशा दूसरों के हित में सोचा करते थे। ममतामयी जन्मदात्री रूपा की गोद को छोड़कर आप अष्ट प्रवचन माता की गोद में बैठकर संघ को, समाज को ही नहीं, अपितु पूरे विश्व को वात्सल्य रूपी अमृत पिलाकर इस पंचम काल के महान् सन्त बने। आचार्यप्रवर करुणा के सागर थे। उन्होंने मुझे रोगी की सेवा करने की प्रेरणा की। तब से मानव कुष्ठ आश्रम की समुचित व्यवस्था मैंने देखना शुरु किया था। नेत्रहीन बालकों के आश्रम में सप्ताह में एक बार उनको स्नान कराने का कार्य भी किया। सवाई मानसिंह अस्पताल के नेत्ररोगियों का एक वार्ड मैंने गोद लिया। उसमें जाने पर उनकी बेबसी पर अपार दुःख होता था। किसी के पास दवा लाकर देने वाला नहीं होता था तो किसी के पास दुध लाकर देने वाला नहीं होता था, तो किसी के पास दूध गर्म करने वाला नहीं था। यह सभी कार्य मैं स्वयं ही करके आती थी और मुझे बहुत अच्छा लगता था। आप कहा करते थे कि अपने जैसा ही दूसरों को समझो। यदि आपको किसी को प्रेरणा देनी है तो स्वयं वैसा ही आचरण करो। आचरण को देखकर दूसरे स्वयं शिक्षा लेंगे। ____जिस प्रकार शरीर पुष्टि के लिए व्यायाम और भोजन आवश्यक है उसी प्रकार मस्तिष्क के विकास के लिए स्वाध्याय आवश्यक है। गुरुदेव की इस प्रेरणा से मैं नित्य स्वाध्याय व थोकड़े आदि सीखने लगी। ___आपकी प्रेरणाओं ने ही मेरे एकाकी, बेबस, खोखले, पराश्रित सुप्त जीवन को जगाया। श्रेष्ठ मूल्यों का नवनीत प्रदान किया। भौतिकता के जाल में फंसी हुई मुझे आध्यात्मिकता का अमृत पिलाया। अतीत को भूलकर वर्तमान में जीने की कला बताई। आज मैं जो भी हूँ जैसी भी हूँ आपकी दीर्घ दृष्टि से हूँ। आपने मुझे आनेवाली आपदाओं से सचेत कर उन आपत्तियों के प्रतिकार या प्रतिरोध का समय-समय पर उपाय भी बताया। साथ ही विकास के दीर्घ परिणामी सूत्र भी दिये। ___ मुझे अक्सर कई बहिनें पूछती हैं कि आप दिन भर क्या करती होंगी? कैसे समय व्यतीत करती होंगी? बड़े सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में पूछती हैं। मैं उनसे कहती हूँ मेरे आराध्यदेव मेरे गुरुदेव ने मुझे प्रातः काल से रात्रि सोने तक की दिनचर्या में जीवन जीने की ऐसी कला सिखाई है कि एक पूरा दिन भी छोटा पड़ जाता है। मेरे पास एकाकीपन को पास फटकने की गुंजाइश नहीं है। यह उत्तर सुनकर बहिनें आश्चर्य चकित हो जाती हैं । मेरे जीवन के खिवैया, जीवन संवारने वाले वाणी के जादूगर को श्रद्धा सुमन देते हुए 'धरती कागज करूं लेखन करूं वनराय। सात समुद्र की मसि करूं गुरु गण लिखा नहीं जाये।' __स्वयं को सुनने वाले, स्वयं को देखने वाले, स्वयं को जानने वाले अन्तर्मुखी जड़ और चैतन्य के विज्ञाता, मेरे जीवन के निर्माता, वात्सल्य की प्रतिमूर्ति, रत्नवंश के शिरोमणि आकर्षक व्यक्तित्व के धनी, युग-द्रष्टा, इतिहास मार्तण्ड, सामायिक स्वाध्याय के प्रणेता ऐसे अद्भुत एवं विरल योगी के चरणों में मेरा कोटिशः वन्दन, अभिनंदन । • श्रद्धा का कल्पवृक्ष ___यह घटना सन् १९६९ की है। आचार्यप्रवर का विक्रम सम्वत् २०२६ का चातुर्मास नागौर में था। यह घटना बम्ब परिवार की है। श्री अनूपचंदजी साहब बम्ब के छोटे भाई श्री सिरहमल जी साहब बम्ब आचार्य प्रवर के अनन्य भक्त थे। उसी समय महासती जी श्री सायरकंवरजी म.सा. एवं महासतीश्री मैनासुन्दरीजी म.सा. आदि ठाणा का वि. संवत् २०२६का चातुर्मास भोपालगढ (बड़ल) में था। बम्ब साहब अपनी बहिन तपस्विनी श्रीमती लाड़देवी बोथरा, धर्मपत्नी श्रीमती सम्पत देवी बम्ब, पुत्र श्री पदम बाबू और श्री कमल बाबू को साथ लेकर कार से मारवाड़ की ओर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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