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________________ अप्रमत्त साधक की दिनचर्या • डॉ. धर्मचन्द्र जन 'समयं गोयम ! मा पमायए, एवं 'काले कालं समायरे' आगम-वाक्यों के आराधक आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमलजी म.सा. ऐसे अध्यात्मयोगी एवं युगमनीषी साधक सन्त थे जो निन्दा - विकथा एवं सांसारिक प्रपंचों से | मनसा, वचसा एवं कर्मणा दूर रहकर समय एक-एक पल का सदुपयोग करते थे। रात्रि में आप नियत समय पर पोढ़ते, किन्तु जब भी नींद से जाग जाते, तो रात के दो बजे हों या तीन, आप उठकर जप, माला, ध्यान या चिन्तन | में लीन हो जाते। रात्रि के अन्धकार में भी कभी-कभी चित्त में उपजे विचारों या काव्य पंक्तियों को लिपिबद्ध कर लेते। आप खाली कागज एवं पेंसिल साथ में रखकर पोढ़ते । रात्रिक प्रतिक्रमण का समय होने पर प्रतिक्रमण करते, | सन्तों को प्रत्याख्यान कराते एवं सूर्योदय के पश्चात् प्रतिलेखन करके स्थण्डिल के लिए पधार जाते । वापस आकर अल्पाहार - मुख्यतः पेय ग्रहण करते और स्वाध्याय तथा लेखन में संलग्न हो जाते । प्रातःकाल प्रवचन एवं अपराह्न में शास्त्र वाचन का क्रम नियमित चलता। जब कभी प्रवचन में नहीं पधारते | तो स्वाध्याय एवं लेखन का कार्य जारी रखते । मध्याह्न में १२ बजे ध्यान के लिए विराजते । ध्यान का ऐसा क्रम था कि कभी विहारकाल में विलम्ब हो जाता तो पेड़ के नीचे या जो भी उचित स्थान मिलता, वहाँ ही एक बजे तक | ध्यानस्थ हो जाते । मौन का समय २ बजे तक रहता था । फिर शास्त्र वाचन करते, सन्त-सतियों की जिज्ञासाओं का | समाधान करते, उनके शास्त्रज्ञान को पाठ देकर या प्रेरणा कर आगे बढ़ाते । समय मिलते ही वज्रासन, पद्मासन आदि | आसनों से विराजकर लेखन में जुट जाते। आवश्यक होने पर सांयकाल ४ बजे बाद सामयिक विषयों पर चर्चा | करते । सायंकाल स्थण्डिल भूमि से लौटकर दैनन्दिनी लिखते एवं थोड़ा सा आहार लेते । मध्याह्न में प्राय: आहार | ग्रहण नहीं करते थे। कभी करते तो हल्का सा लेते। मिर्च-मसाले युक्त एवं गरिष्ठ आहार का वर्जन ही रखते । । | आहार का सेवन संयम - जीवन के लिए था, स्वादपूर्ति एवं शरीर-पोषण के लिए नहीं । I सायंकाल का प्रतिक्रमण भी समय पर करते । प्रतिक्रमण के पश्चात् सन्तों तथा आगन्तुक श्रावकों से | ज्ञान- चर्चा करते । श्रावकों को भी जिज्ञासा समाधान का यह समय उपयुक्त लगता, क्योंकि रात्रि में पूज्यप्रवर लेखन | आदि कार्यों में व्यापृत नहीं मिलते थे। यह समय आचार्यदेव प्राय: जिज्ञासु श्रावकों के लिए नियत रखते थे, किन्तु दिन में भी ध्यान, मौन, प्रवचन, शास्त्रवाचन आदि के अतिरिक्त जब भी योग बनता आप आगन्तुकों को | सामायिक स्वाध्याय की प्रेरणा एवं व्रत - प्रत्याख्यान कराने हेतु सजग रहते थे । स्मरणशक्ति इतनी तीव्र कि अन्धेरे में भी आवाज मात्र श्रावकों को पहचान लेते थे । आगन्तुकों से आप आर्थिक एवं पारिवारिक विषय पर कभी भी बातचीत नहीं करते थे। आसन इस प्रकार लगाते कि श्रावकों को चरण स्पर्श का प्रायः अवसर नहीं मिलता था। | ज्ञानचर्चा के अनन्तर नियमित रूप से कल्याणमन्दिर स्तोत्र एवं नन्दीसूत्र का स्वाध्याय करके आप काष्ठपट्ट पर या | नीचे ही शरीर एवं मस्तिष्क के विश्रामार्थ पोढ़ जाते थे। दिन में कभी पोढ़ने या लेटने का काम नहीं । मनोबल इतना दृढ कि ज्वरग्रस्त होने पर भी बैठे रहकर ही स्वाध्याय - लेखन में प्रवृत्त रहते । आपकी दिनचर्या को जिसने अपने | नयनों से देखा है, वह आसानी से समझा सकता है वे महापुरुष कितने अप्रमत्त थे । ( उपाध्यायप्रवर श्री मानचन्द्रजी म.सा. से बातचीत के आधार पर) - ३४ २४-२५ कुडी भगतासनी, जोधपुर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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