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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ५८२ | नहीं कर पाता था। आचार्य श्री बड़े सरलहृदय थे और दूसरों को भी वे वैसा ही सरल समझते थे। कोई मायाचार या कपट कर सकता है, झूठ बोल सकता है, उन्हें प्राय: ऐसा नहीं लगता था। आचार्य श्री निर्लोभता की प्रतिमूर्ति थे । अनेक बहुमूल्य चित्र व अमूल्य हस्तलिखित ग्रंथ जिनका आप चाहते तो संग्रह कर सकते थे, परन्तु आपने उन्हें शास्त्र भण्डारों को सम्भलाने की प्रेरणा प्रदान कर उन्हें समाजोपयोगी बनाया। आप क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों | ही कषायों से अपने को बचाने में सदैव सजग रहते थे। कषाय-विजय के लिए सतत पराक्रम करते रहते थे। ___ आचार्यप्रवर तीन गुप्तियों के पालन में सदैव जागरूक रहे। आप काया का गोपन कर व्यर्थ की प्रवृत्तियों से बचते थे। वचनगुप्ति के प्रति भी पूर्ण सावधान थे। विकथाओं से तो सदा बचते ही थे, आगन्तुक दर्शनार्थी को भी सामायिक स्वाध्याय, व्रत-प्रत्याख्यान के नियम दिलाकर अपने कार्य में लग जाते थे। व्यर्थ की बात बिल्कुल नहीं करते थे। आप स्वयं उत्कृष्ट चारित्र का पालन करते थे, साथ ही सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को भी किसी न किसी प्रकार की साधना की प्रेरणा देते रहते थे। आपके अपने शासन काल में इकतीस सन्तों एवं चौवन सतियों की दीक्षा हुई। आपकी प्रेरणा से सामायिक-संघ व साधना-संघ की स्थापना हुई। आपका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली होने पर भी आप मान से कोसों दूर रहते थे। संथारे के कुछ दिन पहले आपकी रुग्णावस्था में साधना विषयक चर्चा में आपने फरमाया कि सागर में एक बुदबुदा रहे तो क्या और न रहे तो क्या, अर्थात् सागर में बुदबुदे का कोई महत्त्व या मूल्य नहीं है उसी प्रकार इस संसार में हमारे रहने न रहने का, जीने मरने का कोई महत्त्व नहीं है । आचार्य श्री के इस कथन से ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आप कितने निरभिमानी थे। आपकी प्रेरणा से सैकड़ों साधकों ने अपने जीवन को उन्नत बनाया। आप तपाचार के भी उत्कृष्ट आराधक थे। आचार्यप्रवर के पांचों इंन्द्रियों के आहार (के भोग) का त्याग रूप अनशन तप तो सदैव चलता ही रहता था, साथ ही शरीर और इन्द्रियों की क्रिया के लिये जो आहार लेना पड़ता था वह भी कम से कम लेते थे अर्थात् उणोदरी तप बराबर चलता था। जो आहार लेते थे उसमें निजी संकल्प नहीं होता था, अपने शिष्यों की प्रसन्नता के लिए एवं संयम-साधना के लिए लेते थे । इस प्रकार वृत्तिप्रत्याख्यान या | भिक्षाचर्या तप के भी सच्चे आराधक था। आहार में रस का भोग न करने से आप रस-परित्यागी थे। दिन भर बैठे-बैठे कार्य करने पर तथा चलने से थकान होने पर भी आप दिन में लेटते नहीं थे। रोग आने पर समता से सहन करते थे। इस प्रकार आपका काय-क्लेश तप चलता रहता था। आप इन्द्रियों के साथ मन को भी बहिर्मुखी वृत्ति से हटाकर अपने को ज्ञानोपयोग में संलीन करने में तत्पर रहते थे। अर्थात् प्रतिसंलीनता तप भी आपका उत्कृष्ट श्रेणी का था। संयम की उत्कृष्ट पालना के लिए प्रायश्चित का आप सदा ध्यान रखते थे। आप अहंभाव से परे थे इसलिए विनय तप सहज क्रियान्वित हो जाता था। । आपका सबके प्रति विनम्रता का व्यवहार था। वैय्यावृत्त्य या सेवाभाव तो आपका सहज गुण था। आपकी विद्वत्ता, योग्यता, सामर्थ्य आदि सभी संसार की सेवा में अर्पित थे। आप करुणाई हो सभी को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने रूप सेवा में तत्पर रहते थे। स्वाध्याय तप के तो आप मूर्तिमान रूप थे। प्रात:काल से रात्रि तक स्वाध्याय में रत रहते थे। अंधेरा हटते ही लिखने पढ़ने का कार्य चालू कर देते थे। अपना समय व्यर्थ न जावे, इसके प्रति पूर्ण सावधान रहते थे। आपके सम्पर्क में जो भी पढा लिखा व्यक्ति आता ; आप उसे नियमित स्वाध्याय करने की प्रेरणा देते एवं नियम दिलाते
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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