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________________ आराध्यदेव की स्मृति आज भी मेरे हृदय पटल पर अंकित है . श्री गणेशमल भण्डारी अदभुत योगी, असीम आत्म-शक्ति के धारी, हिंसा, झूठ चोरी, मैथुन एवं परिग्रह के त्याग की कसौटी पर खरे उतरने वाले, ज्ञान के साथ शुद्ध क्रिया-पालन करने वाले मेरे आराध्य देव, आचार्य भगवन्त जिनके नाम का श्रवण सम्भवतः माँ के गर्भ से करके आया था, के सबसे पहले दर्शन कहाँ किये, यह मुझे ध्यान में नहीं आता, पर मेड़ता का चातुर्मास एवं सादड़ी सम्मेलन का चित्र मेरी स्मृति में है। मैं अपने पिताश्री के साथ मेड़ता चातुर्मास में गया था। बचपन में मैं अपने फूफाजी (भूरोसा) की दुकान से | बिना पूछे जेब में खाने की कुछ गोलियाँ ले आया। सायंकाल प्रतिक्रमण के समय गोलियाँ पाजामे से गिर गई। मेरे पिताश्री ने एक चाँटा मारा। प्रतिक्रमण के बाद आचार्य भगवन्त ने मेरे पिताश्री को उपालम्भ दिया-“जीवन बनाने की कला सिखाओ।” दूसरी रात पिताश्री स्थानक में ही सोए हुए थे। अचानक रात में आचार्य भगवन्त के कमरे में प्रकाश हुआ। सफेद कपड़े में एक बूढ़े व्यक्ति को देखकर सब घबरा गए , आचार्य भगवन्त की एक आवाज सुनते ही निश्चिन्त हो गए। पिताश्री आराध्य देव की साधना के अनेक प्रसंग व चमत्कार सुनाया करते थे। आचार्यश्री की सम्मेलन में बड़ी धाक थी, वे जितने दयालु व कृपालु थे, उतने ही व्रत-नियम में चट्टान की तरह अडिग थे। आपने सिद्धान्तों का सौदा समन्वय के लिए कभी नहीं किया। आपका प्रभाव अनूठा था। निमाज में देवराजजी खींवसरा भूत-प्रेत की बाधा से ग्रस्त थे। आपकी मांगलिक से बाधा दूर हो गई, जीवन के अन्तिम समय तक बाधा नहीं आई। ___ मेरे जीवन पर गुरुदेव का बड़ा उपकार रहा। मैं १९७१ में जयपुर के लाल हाथी वालों के मकान से चरणों में समर्पित हो गया, भक्ति की ओर बढ़ता रहा, चरणों में समर्पित होता रहा। मेरी अनन्त प्रबल पुण्यवानी के कारण आचार्य भगवन्त का दक्षिण में पधारना हुआ, मुझे चरणों में लुटने का अवसर मिलने पर भी, जितना लुटना था, नहीं लुट पाया। सोलापुर में आचार्य भगवन्त विराज रहे थे, वहाँ मैंने स्थानक में प्रेतबाधा से युक्त एक मुस्लिम भाई को देखा । वह ऊपर की मंजिल तक पहुँच गया। आचार्य भगवन्त की सेवा में श्री नथमलजी हीरावत एवं श्री श्रीचन्दजी गोलेछा ज्ञान-चर्चा कर रहे थे। मुस्लिम भाई को वज्रासन में विराजे आचार्यश्री ने जैसे ही निहारा, वह शान्त हो गया। अपने कर्मों को दोष देते हुए उसमें से भूत-प्रेत की बाधा निकल गई। विहार में लम्बे समय तक चरणों में साथ रहने से अनेक संस्मरण याद आते हैं । बागलकोट के पूर्व सुराणाजी | के बंगले पर पूज्यश्री कृष्णा दशमी को मौन साधना में विराज रहे थे। प्रतिक्रमण के बाद ध्यान-साधना हेतु एक वृक्ष के नीचे विराजे । हम भी खिड़की से बार-बार देखने की कोशिश कर रहे थे, रात्रि के करीब १ बजे का समय होगा, आचार्य भगवन्त एक पाँव पर खड़े थे एवं प्रकाशमय शरीर था, यह मैंने आँखों से देखा। रास्ते के विहार में कोर्ती गाँव के पास एक पटेल का बैल आचार्य भगवन्त की कृपा-दृष्टि का पात्र बना, वह | बैल नहीं, एक श्वेत अश्व जैसा लग रहा था, आचार्य भगवन्त ने उसकी ओर कृपा भरी दृष्टि से देखा। उसने पूर्व
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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