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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ५४१ दृष्टि दी आचार्य श्री ने । सभी वर्ग के लोग इस दिशा में यथाशक्ति खिंचते चले आये और देखते-देखते देश के | विभिन्न प्रान्तों में स्वाध्याय का शंखनाद गंज उठा। स्वाध्याय केवल मस्तिष्क का व्यायाम बनकर न रहे. उसमें साधना का रस छलके, हृदय का मिठास घुले, वह वाचना, पृच्छना और परिवर्तना तक ही सीमित न रहे। अनुप्रेक्षा और धर्म कथा के तत्त्व स्वाध्याय के साथ जुड़ें, इसी विचार ने साधना संघ को मूर्त रूप दिया । स्वाध्याय साधना का अंग बनकर ही जीवन को रूपान्तरित कर सकता है, भीतरी परतों को भिगो सकता है। आचार्य श्री वस्तु को खण्ड-खण्ड देखकर भी जीवन की अखण्डता और सम्पूर्णता के पक्षधर थे। उनका विचार था कि जैन समाज सब प्रकार से सम्पन्न होकर भी अपना ओज और पुरुषार्थ प्रकट नहीं कर पा रहा है। समाज के श्रीमन्त, अपनी धन-सम्पदा में मस्त हैं तो समाज के विद्वान् अपने ज्ञान-लोक में एकाकी मग्न हैं। कार्यकर्ताओं की जैसी प्रतिष्ठा होनी चाहिए, वह नहीं है और अधिकारियों का अपना अलग अहम् है। यदि समाज के ये चारों अंग मिल जाएँ तो आदर्श समाज का निर्माण सहज-सुलभ हो सकता है। इसी विचार के परिणामस्वरूप अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिषद् अस्तित्व में आई। __ आचार्य श्री के सन् १९७८ के इन्दौर चातुर्मास में वहाँ के प्रमुख समाजसेवी श्री फकीरचन्दजी मेहता ने जैन | समाज के प्रमुख विद्वानों का एक सम्मेलन इन्दौर में आयोजित करने की बात मुझे लिखी । मैं इन्दौर गया। आचार्य श्री से विचार-विमर्श हुआ और इस योजना को मूर्तरूप मिला । विभिन्न क्षेत्रों के लगभग १०० विद्वान इससे जुड़े और फिर तो आचार्य श्री के प्रत्येक चातुर्मास में विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन होता रहा । विद्वत् परिषद् को संपुष्ट करने के लिए श्रीमन्तों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को भी इससे जोड़ा गया । आचार्य श्री का विद्वत् परिषद् को सदैव आशीर्वाद मिला। राजस्थान के अतिरिक्त देश के सुदूर क्षेत्रों मद्रास, रायचूर, जलगांव आदि में इसकी गोष्ठियां हुई। अत्यन्त व्यस्त रहते हुए भी आचार्य श्री संगोष्ठियों के अवसर पर विद्वानों को सम्यक् मार्गदर्शन देते। आचार्य श्री का बल बराबर इस बात पर रहता कि विद्वान् अपने को किताबों तक सीमित न रखें, वे धर्म-क्रिया में भी अपना ओज दिखायें। वे कहा करते थे-'यस्तु क्रियावान् पुरुष सः विद्वान्' अर्थात् जो क्रियावान् है, वही पुरुष विद्वान् है। आचार्य श्री की प्रेरणा रहती कि यदि एक विद्वान् सही अर्थ में धर्माराधना के साथ जुड़ जाता है तो वह अनेक भाई-बहिनों के लिए प्रेरणा स्तम्भ बन जाता है। आचार्य श्री के इस उद्बोधन से प्रभावित-प्रेरित होकर विद्वत् परिषद् के कई विद्वानों ने धर्म साधना-सम्बन्धी दैनन्दिन नियम, व्रतादि ग्रहण किये। आचार्य श्री धर्म को आत्म-कल्याण का साधन मानने के साथ-साथ उसे लोक-शक्ति के जागरण का बहुत बड़ा माध्यम मानते थे। इसीलिए उन्होंने नारी शक्ति को संगठित होने की प्रेरणा दी। श्री महावीर जैन श्राविका संघ इसी प्रेरणा का प्रतिफल है। आचार्य श्री ने अपनी जन्मकालीन परिस्थितियों में नारी को कुरीतियों के बंधन में जकड़े हुए देखा था। उन कुरीतियों से नारी-शक्ति मुक्त हो, और वह अपना सर्वांगीण आध्यात्मिक विकास करे, इसके लिए वे सदैव प्रेरणा देते थे। कहना न होगा कि उनकी प्रेरणा के फलस्वरूप ही सैंकड़ों-हजारों बहिनों का जीवन बदला है। वे स्वाश्रयी और स्वावलम्बी बनी हैं। युवकों को भी आचार्य श्री संगठित होने की सदा प्रेरणा देते थे। जोश के साथ वे होश को न भूलें, अपनी | शक्ति रचनात्मक कार्यों में लगायें, मादक पदार्थों के सेवन व अन्य व्यसनों से वे दूर रहें, जीवन में सादगी और | खान-पान में सात्त्विकता बरतें । इस दिशा में आचार्य श्री युवकों को बराबर सावचेत करते थे। आज ‘अ.भा. जैन |
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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