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________________ (५२८ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं परन्तु उनकी साधना को देखकर ही दर्शक सब कुछ पा लेता था। लेखक को भी उनके अप्रमत्त साधनामय जीवन का खूब सान्निध्य मिला। उनकी साधना की पूजनीय एवं अनुकरणीय छवि ही हृदय में अंकित हुई, जो अमिट है। आचार्य देव की साधना को प्रत्यक्ष देखकर, उनके पावन प्रवचन सुनकर ही मैं हरबार उनकी ओर अधिकाधिक आकृष्ट होता गया। उनकी साधनामय जीवन की गहरी छाप ही मेरे जीवन को यत्किंचित् धार्मिक आध्यात्मिक बनाने की बुनियाद रही। सच कहा जाय तो इस गाथा में, इस कथा में न कुछ मेरा है न तेरा है. उस विभूति के गुणगान का बहाना मात्र है-यह सब कुछ। • दृष्टिकोण में बदलाव पूज्य आचार्य श्री हस्ती धार्मिक-आध्यात्मिक जगत् की एक महान् विभूति थे। वे एक महानतम साधक थे और थे साधना के उत्कृष्ट आदर्श । उनका सम्पूर्ण जीवन साधना की समुज्ज्वल स्वर्णिम रश्मियों से जगमगाता था। साधना के अप्रतिम प्रभाव से प्रभावित जैन समाज ही नहीं, सम्पूर्ण जन-समुदाय उनके चरणों में श्रद्धा से नतमस्तक था। उस अप्रमत्त साधक का सान्निध्य पाकर व्यक्ति के विचार और व्यवहार में परिवर्तन आना कोई आश्चर्यजनक नहीं, आश्चर्यजनक तो इस महान् आत्मा के सान्निध्य में रहकर भी परिवर्तन नहीं आने में होता। यह मेरा परम सौभाग्य था कि मुझे उस ,पःपूत दिव्य आचार्य का सान्निध्य पाँच दशाब्दियों से अधिक काल तक प्राप्त हुआ। बालपन से प्रौढ़ावस्था पर्यन्त मिले इस सान्निध्य का प्रभाव अत्यंत ही अमूल्य और अमिट रहा। उस महापुरुष की कृपा से संसार के कार्य करते हुए भी मेरे मन में पापभीरुता बनी हुई है। पापमय कार्यों से विलग रहने का भरसक प्रयास और अन्तर्मुखीवृत्ति उस पावन सान्निध्य की अविस्मरणीय निधि है। उस आधार पर यह धारणा बनी है कि वृत्तियाँ ठीक रहें तो प्रवृत्तियां निश्चित रूप से ठीक होंगी ही। भोपालगढ़ (जोधपुर, राजस्थान) की संत-चरणों से पावन बनी भूमि में जैनरत्न विद्यालय के छात्रावास में रहते हुए सन्त-सती वर्ग एवं पूज्य आचार्यप्रवर के सान्निध्य का अनेक बार स्वर्णिम अवसर मिला। आचार्यप्रवर के दर्शन, वंदन, प्रवचन, धर्मचर्चा, सामायिक, स्वाध्याय, पौषध आदि में पूज्य आचार्यश्री के सान्निध्य ने मुझ में एक सम्यक् दृष्टि जगा दी। फलस्वरूप जीवनयात्रा में अग्रसर होते हुए आध्यात्मिक, धार्मिक रुचि बढ़ती गई, दृढ़ होती गई। बचपन में अंकुरित अध्यात्म-बीज पल्लवित होते गये। आजीविका उपार्जन के साथ जीवन में धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता का सर्वोपरि स्थान रहता था। ज्ञान-क्रिया के प्रति रुझान रहता था। उस महनीय व्यक्तित्व का ही अमिट प्रभाव मेरे जीवन पर अंकित है। उस महान् संयम- श्रेष्ठ संतरत्न की छाप मेरे मानस में बसी हुई है। आज भी मैं और मेरा परिवार शद्धाचारी एवं क्रियावान सन्त-सती वर्ग की बिना किसी सम्प्रदाय का विचार किए सेवा करते हैं। शुद्धाचार को बल देते हए असाम्प्रदायिकता की भावना मेरे विचार में जैन एकता की एक सबल कड़ी बन सकती है। यह तो दृष्टिकोण के बदलाव की बात हुई । जब दृष्टि बदली तो सृष्टि बदली, इस कहावत के अनुसार मेरी दिनचर्या में भी पर्याप्त बदलाव आया। आचार्य प्रवर का सान्निध्य बचपन से प्रौढावस्था तक मिलता ही रहा। उनके त्यागमय एवं तपःपूत जीवन से एवं उनके वैराग्यपूरित प्रवचनों से प्रेरित होकर जहां तक स्मरण है, विद्यार्थी काल से ही अध्ययन के साथ धर्म-साधना में तप-त्याग (छोटे-छोटे) की प्रवृत्ति प्रारम्भ हो गई। ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती गई दिनचर्या में धर्म-साधना को अधिक अधिक समय मिलता गया। सांसारिक जिम्मेदारियों को संभालते हुए भी संवर-निर्जरा में, आध्यात्मिक
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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