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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड ५२३ श्री ज्ञानचन्दजी म.सा. एवं पूज्य श्री रत्नचन्द्र जी म.सा. के श्रावकों ने धर्माराधन हेतु खरीदा था । यहाँ पर श्रावकों के द्वारा सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, दयाव्रत आदि दैनिक धार्मिक कार्यक्रम शान्ति पूर्वक होते थे । समय-समय पर | संत- मुनिवरों के चातुर्मास भी यहाँ पर बराबर होते रहे, क्योंकि धर्म-आराधना हेतु यह उचित व सुखदायक भवन था। मरुधर श्रावक मण्डल एवं उक्त तीनों सम्प्रदायों के श्रावकों में कुछ मुद्दों को लेकर उक्त सिंहपोल के बारे में विवाद उत्पन्न हो गया । न्यायालय तक विवाद पहुँच गया । अन्ततः कुछ धर्मप्रेमी बन्धुओं ने दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने हेतु ओसवाल समाज के दो प्रतिष्ठित एवं निष्पक्ष सदस्य श्री मगरूप चन्द सा भण्डारी व श्री दानचन्द सा भण्डारी जो स्थानकवासी समाज के नहीं थे, नियुक्त किये गए। दोनों पंचों ने संबंधित पक्षों को सुनकर ट | पत्रावली आदि का अवलोकन कर इस भवन को पूज्य श्री श्रीलालजी म.सा., पूज्य श्री ज्ञानचन्दजी म.सा. एवं पूज्य श्री रत्न चन्द्र जी म.सा. के श्रावकों (अनुयायियों) की सम्पत्ति होने का पंच निर्णय दिया और इस संबंध में घोषणा भी की । सन् १९४० के पंच फैसले के पश्चात् भवन का ताला न्यायालय के आदेश से खोल दिया गया। तत्पश्चात् यह भवन धार्मिक कार्यों हेतु उपयोग में आना प्रारंभ हुआ । I पूज्य आचार्यप्रवर १००८ श्री हस्तीमलजी म.सा. ने संवत् २००२ में मूलसिंह जी के नोहरे, मोतीचौक जोधपुर में चातुर्मास किया । श्रावक-श्राविकाओं की सुविधा को ध्यान रखते हुए प्रवचन आप आहोर की हवेली में | फरमाते थे । कुछ श्रावकगण सिंहपोल में भी धर्माराधन करते थे । चातुर्मास के दौरान श्रावकों के निवेदन पर पूज्य आचार्यप्रवर ने पर्युषण के प्रथम दिन अपने वरिष्ठ सन्त श्री लक्ष्मीचन्दजी म.सा. एवं श्री माणकमुनिजी म.सा. को सिंहपोल में धर्माराधन कराने हेतु भेजा। कुछ महानुभाव पंच फैसले से असंतुष्ट थे, अतः वे पहले से ही नाराज उक्त दोनों सन्तों के वहां पधारने से उनका विरोध उग्र हो गया। ऐसा याद पड़ता है कि सायंकाल प्रतिक्रमण के समय सिंहपोल के बाहर चन्द महानुभावों ने एकत्रित होकर व्यवधान पैदा करना शुरु किया और जोर-जोर से | चिल्लाने लगे। विरोध प्रदर्शन करने के अनुचित तरीके भी अपनाये। उसी समय पूज्य आचार्यप्रवर के पास उन्होंने तार भी भिजवाये, जिसमें सन्तों को सिंहपोल से वापस बुलाने का आग्रह था । दोनों सन्त पर्युषण की समाप्ति पर | वापस पूज्य आचार्यप्रवर के पास चले आए। चातुर्मास - समाप्ति के पश्चात् पूज्य आचार्यप्रवर विहार कर सिंहपोल पधारे। असंतुष्ट महानुभाव अपने रवैये पर डटे रहे और प्रतिदिन प्रातः काल प्रवचन के समय सिंहपोल के बाहर शिष्टाचार का उल्लंघन कर अशोभनीय नारे | लगाते रहे और हो हल्ला करते रहे, जिसके फलस्वरूप प्रवचन सुनने में बाधा उत्पन्न हुई। पूज्य आचार्यप्रवर समभाव में दृढ प्रतिज्ञ थे । 'ओम शान्ति ओम शान्ति' की प्रार्थना बोलना आपको प्रिय था । ऐसा कई दिनों तक चलता रहा । पूज्य आचार्यप्रवर ने अपने श्रावकों को भी समता व शांति रखने के निर्देश दिये। सम्प्रदाय के प्रति निष्ठावान रत्नवंश के सुश्रावकों ने पूज्य आचार्यप्रवर के आदेश व निर्देशों की पालना कर उस समय पूर्णशांति रखी। स्थंडिल व अन्य कार्यों हेतु पूज्य आचार्यप्रवर एवं सन्तों को कठिनाई का सामना करना पड़ता था । सिंहपोल | के प्रवास के समय कई महानुभावों ने विरोध प्रकट करने व बदनाम करने के लिये कई गलत, झूठी व मनगढंत अफवाहें भी फैलाई, किन्तु पूज्य आचार्यप्रवर गंगाजल के समान पवित्र, परोपकारी, संयम के आदर्श प्रतीक, आत्म विश्वासी, भविष्य द्रष्टा, एकान्त व शान्तिप्रिय परमयोगी महान् सन्त थे । वे इन अफवाहों से कब घबराने वाले थे । उनके आध्यात्मिक तेज, त्याग, एकता और समतामय ज्ञान - ध्यान में कोई किसी भी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचा
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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