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________________ आइच्चेसु अहियं पयासयरा शासनप्रभाविका श्री मैना सुन्दरीजी म.सा. जे सउ चन्द उगावहिं सूरज चढहिं हजार । एवे चानण हों दिया, गुरु बिन घोर अन्धार । आचार्य संघ का प्रहरी होता है। सघन अंधकार को जैसे सूर्य की चमचमाती रश्मियाँ नष्ट कर देती हैं वैसे ही || | श्रुत, शील और बुद्धि सम्पन्न आचार्य चतुर्विध संघ के अज्ञान अंधकार को नष्ट कर देते हैं। ____ आचार्य गुणों के पुंज होते हैं। आचार्य श्री हस्ती का जीवन सूर्य की तरह तेजस्वी, चन्द्र की तरह सौम्य और | सिंह की भांति निर्भीक था। आचार्य श्री के जीवन के क्षण -क्षण में और मन के अणु-अणु में मधुरता थी। आचार्य श्री संस्कृति के सच्चे संरक्षक, जन-जन के पथ-प्रदर्शक और आलोक स्तम्भ थे। आचार्य धर्म-संघ का पिता होता है। वे तीर्थंकर तो नहीं , पर तीर्थंकर के समान होते हैं। तीर्थंकर के अभाव | में चतुर्विध संघ का संचालन व संवर्धन करते हैं। भूले-भटके राहियों को सही दिशा का सूचन करते हैं। आचार्य श्री दीपक की तरह होते हैं। कहा है-“दीवसमा आयरिया।” वे स्वयं जलकर दूसरे दीपकों को भी | जलाते हैं। आचार्य आचारनिष्ठ महापुरुष होते हैं। पंचाचार की सुदृढ़ नींव पर ही उनके जीवन-महल का निर्माण | होता है। आचार्य श्री हस्ती ऐसे ही महापुरुष थे। समुद्र के जलकणों की तथा हिमालय के परमाणु की तो गणना करना फिर भी सहज व सरल है, किन्तु आचार्यों के गुणों की गणना करना असंभव-सा प्रतीत होता है। आचार्य श्री कुशल चिकित्सक थे । वे | भव-व्याधियों से ग्रस्त व त्रस्त मानव-समाज को सम्यक्त्व रूपी औषधि देकर भवरोग से मुक्त करते थे। आचार्य श्री ‘सागरवर गंभीरा' थे, ‘चन्देसु निम्मलयरा' थे, 'आइच्चेसु अहियं पयासयरा' थे। आचार्य श्री हस्ती चतुर्विध संघ की मुकुटमणि थे। जिनशासन की दिव्य दिनमणि थे और रत्नवंश की पवित्र चिन्तामणि थे। आचार्य हस्ती व्यक्ति नहीं, संस्था नहीं, आचार्य नहीं, किन्तु युगपुरुष थे। उन्होंने युग की विषम परिस्थितियों को देखा, समझा और पाटा। आचार्य श्री की वाणी में ओज, हृदय में पवित्रता और साधना में उत्कर्ष था। आपका बाह्य व्यक्तित्व जितना नयनाभिराम था, उससे भी कई गुणा अधिक उनका अन्त: जीवन मनोभिराम था। लघु काया एवं मंझला कद, दीप्तिमान निर्मल श्यामवर्ण, प्रशस्त भाल, उन्नत शीर्ष, नुकीली ऊँची नाक, प्रेम पीयूष बरसाते उनके दिव्य नेत्र देखते ही दर्शकों को मंत्र मुग्ध बनाते थे। ___आप स्वयं बहुत विशिष्ट दर्जे के साहित्यकार थे और अपने शिष्य-शिष्याओं में भी यही गुण देखना चाहते होगी कोई ४०-४५ वर्ष पुरानी बात । गुरु भगवंत ने मुझे पूछा “महासती मैना जी, दिन को आप जो पढ़ती हैं,
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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