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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड नहीं ! नहीं ! कदापि नहीं। अनेक भक्तों की कई पीढियों के प्रतिबोधक गुरु की आगामी पीढियाँ सहज विश्वास भले ही न कर पायें कि एक साथ गुण पुष्पों की इतनी विविधता वाला जीवन उपवन कभी यहाँ महका था, पर अपने पूर्वजों से सुन कर उनके महिमामंडित जीवन का अनुमान लगा कर वे गौरवान्वित हो सकेंगी। किसी शायर की ये पंक्तियां उन | गुणरत्नाकर के जीवन पर कितनी सटीक हैं - आने वाली नस्लें जिसके होने का अन्दाज करेंगी, वो ऐसा था शख्स निराला, सदियां जिस पर नाज करेंगी। यूं तो इस दुनिया में आना और जाना सदा लगा रहा है। अनादि काल से अनेक महापुरुषों ने अपनी जीवन ऊर्मियों से पतितों को पावन किया, भक्तों को भगवान बनाने की राह दिखाई। यह दुनिया चलती रही है, चलती रहेगी, स्वयं उन गुण सिन्धु ने अपने आपको एक बिन्दु मात्र ही माना, पर यह बात अटूट विश्वास से कही जा सकती यूं तो दुनियां के समुद्र में कभी कमी होती नहीं, लाख गौहर देख लो, इस आब का मोती नहीं। शास्त्रों का जिन्होंने बोध कराया, स्वाध्याय की जिन्होंने राह दिखाई, आगममनीषी उन गुरुदेव के जीवन में | आगम गाथाएँ मानो जीवन्त प्रतीत होती हैं। पूज्यपाद ने जीवन के उषाकाल में ही अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दिया, पूज्य स्वामीजी हरखचंदजी म.सा, पूज्यपाद गुरुदेव आचार्य श्री शोभाचन्दजी म.सा. एवं सेवाभावी साधक श्री भोजराजजी म.सा. के अनुशासन व देखरेख में बाल्यकाल में उनका जीवन अनुशासन की अनूठी मिसाल बन गया, उन्होंने गुरु चरणों में यह पाठ पढ लिया कि 'छंदे निरोहेण उव्वेइ मोक्खं' यानी स्वच्छन्दता के त्याग से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिन्हें मोक्ष की ओर अनुगमन करना होता है, वे शिष्य तो सर्वतोभावेन सदा के लिये गुरु चरणों में समर्पित हो उनके अन्तेवासी बन अपना जीवनधन उन्हें सौंप देते हैं। जहाँ श्रद्धा है वहाँ समर्पण होता है, शर्त नहीं । जहाँ समर्पण है, वहाँ स्वच्छन्दता, दुराव, लुकाव, छिपाव व मायाचारिता का भला अवकाश ही कहाँ ! गुरुचरणों में समर्पित शिष्य छन्द रहित हो अपने चित्त को निर्मल विमल बना आत्मकल्याण के पथ पर | अग्रसर हो जाता है। शुद्ध हृदय में ही धर्म स्थिर रह सकता है। श्रमण भगवान महावीर ने अपनी अन्तिम धर्मदेशना| में फरमाया है – “सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई।” । जिनका अन्तर निर्मल बन जाता है , जिनके जीवन में छल, कपट व प्रपञ्च नहीं रहता, उनका अन्तर और बाह्य एक हो जाता है। आगम ऐसे साधकों को 'जहा अंतो तहा बाहि' की उपमा से उपमित करता है। महनीय गुरुदेव ने पूज्यपाद गुरुदेव के सान्निध्य व शास्त्रों के अनुशीलन से जो ज्ञान पाया, वह उनके चिंतन व आचरण में ढल गया, क्योंकि “ज्ञानस्य सारो विरति:”। पूज्यपाद ने जो पढ़ा, उसका चिन्तन-मनन कर ज्ञान का मक्खन अर्जित किया और उसी अनुरूप साधना कर अपनी करनी में उतारा। वे जैसा सोचते, वैसा ही करते, जैसा करते, वैसा ही बोलते । सोच, कथनी व करनी में ऐसा अद्भुत साम्य विरले महापुरुषों में ही देखने को मिल सकता है। जिनके अन्तर व व्यवहार में एक रूपता होती है, वे महापुरुष समय को पहिचान लेते हैं। आत्मा को जान लेने
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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