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________________ तृतीय खण्ड : व्यक्तित्व खण्ड S जाता, उनके चरणारविन्द को स्पर्श कर लेता, वह सदा के लिये आपका श्रद्धालु भक्त बन जाता। आपके गुणसमूह की दूसरी विशेषता पारस पत्थर के तुल्य थी। पारस पत्थर जिस प्रकार लोहे को सोना बना देता है, उसी प्रकार आचार्य प्रवर के सम्पर्क में आने वाला भोगी व्यक्ति त्यागी और विराधक आराधक बन जाता था। जो भी आचार्य श्री के सम्पर्क में आया, उनके उपदेशों का जिसने भी अमृत पान किया, उनकी बताई हुई ।। शिक्षाओं, उनकी दी हुई प्रेरणाओं को हृदयंगम कर उनके बताए मार्ग पर आगे बढ़ा तो वह आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता चला गया। आचार्य श्री भक्त में भगवान के दर्शन करते थे। उनका स्वयं का कथन था कि साधक को भक्त नहीं बनना है, भगवान बनना है। आराधक से आराध्य, उपासक से उपास्य, साधक से सिद्ध बन जाने का मार्ग प्रशस्त करना उनका लक्ष्य था। गुरुदेव के अनेक गुणों में एक गुण था-उनका अप्रमत्त जीवन । प्रमाद उनके प्रायः नजदीक नहीं आ पाया। वे यदि रात को १० बजे सोये और ११ बजे उठ गये तो फिर पूरी रात नहीं सोते थे। माला, ध्यान आदि में ही समय व्यतीत करते थे। वे अपने वचन के निर्वहन में भी पक्के थे। 'प्राण जाय पर वचन न जाय', कथन का वे निर्वाह करते थे। | जीवन के अंतिम समय में बड़े-बड़े नगरों एवं डाक्टरों की सुविधाओं को त्याग कर निमाज जैसे छोटे ग्राम की ओर | प्रयाण करना यही सिद्ध करता है। एक अन्य प्रसंग है। आपने अहमदाबाद का चातुर्मासावास सानन्द सम्पन्न कर जयपुर की ओर विहार किया। उस समय इतिहास-लेखन का कार्य चल रहा था। आपश्री को कुछ ही दूर स्थित एक यति जी का पुरातन ग्रंथ-भंडार देखना था। आपने यति जी को कहलवा दिया था। संतों को भी अपने भाव बता दिये थे। सूचना मिली कि यतिजी कहीं बाहर गए हुए हैं। इधर जयपुर में एक दीक्षा-प्रसंग था। मैंने गुरुदेव से निवेदन किया-“भगवन् ! यतिजी तो हैं नहीं। अतः सीधे ही जयपुर की ओर विहार कर लें।" आपश्री ने फरमाया-“मैंने उनको वचन दे रखा है और मैं | अपनी ओर से वचन तोडूंगा नहीं।" आचार्यश्री करुणा-सागर थे, उनका हृदय कमल की तरह कोमल था। वे परदुःख कातर थे। 'संत हृदय नवनीत समाना' के अनुसार उनका हृदय मक्खन की तरह मुलायम था। पर-पीड़ा से तुरंत पिघल जाते थे। विशेषता | यह कि कोई भी दुःखी, त्रस्त, सन्तप्त प्राणी उनके निकट आता, उनकी चरण-शरण ग्रहण करता तो आपश्री के आशीर्वाद से उसका समस्त दुःख, संताप, कष्ट दूर हो जाता था। यह आपश्री की प्रबल पुण्यवानी का ही प्रताप था। वे स्वयं किसी को कुछ कहते या बताते नहीं, पर जिसका उन पर, उनकी भक्ति पर, उनके वचनों पर अटल विश्वास होता था, उसका कष्ट, उसकी बाधाएं स्वतः दूर जाती थीं। आचार्य गुरुदेव से विद्वान् प्रभावित थे, विचारक प्रभावित थे, आगमज्ञ प्रभावित थे, संत प्रभावित थे। कौन प्रभावित नहीं था उनसे? जब तक श्रमण संघ में रहे, वहां भी अपना वर्चस्व बनाए रखा। एक तेज था आपमें, संयम का तेज, ज्ञान का तेज, क्रिया का तेज, दृढ़ता का तेज । यही कारण था कि जब तक रहे, पूरे स्थानकवासी समाज पर ही नहीं, सम्पूर्ण जैन समाज पर आपका प्रभाव रहा। आचार्य भगवान् आगरा पधारे। उपाध्याय कवि मुनि श्री अमरचंद जी म. के साथ आपका प्रवचन हुआ। मंत्रीजी ने पहले दिन कहा-“आज हमें ज्ञान और क्रिया का समन्वय देखने को मिल रहा है।” दूसरे दिन आचार्य श्री ने प्राचीन श्रमण-संस्कृति विषय पर इतना विद्वत्तापूर्ण एवं तथ्यगत व्याख्यान दिया कि मंत्रीजी कह उठे–“आचार्य श्री
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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