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________________ ४८६ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं __ आपके जीवन में सागर सी गंभीरता, चन्द्र सी शीतलता, सूर्य सी तेजस्विता, पर्वत सी अडोलता का सामंजस्य || एक साथ देखने को मिला। आपकी वाणी, विचार एवं व्यवहार में सरलता का गुण एक अद्भुत विशेषता रही ।। जीवन में कहीं छिपाव नहीं, दुराव नहीं। सरलता, मधुरता एवं निष्कपटता का अद्भुत संगम था आपका जीवन। गरुदेव ने साधक जीवन में अहंकार को काला नाग मानते हुए उत्कृष्ट साधना के स्वरूप को स्वीकारा, क्योंकि जिसको काले नाग ने डस लिया हो वह साधना की सुधा पी नहीं सकता। गुरुदेव दया के देवता रहे । दया साधना का मक्खन है, मन का माधुर्य है। दया की रस धारा हृदय को उर्वर बनाती है। जप-साधना आधि-व्याधि-उपाधि को समाप्त कर समाधि प्रदान करने वाली है, अत: आपने भोजन की अपेक्षा भजन को अधिक महत्त्व दिया। मौन-साधना आपकी साधना का प्रमुख एवं अभिन्न अंग रहा। शिक्षा की अनिवार्यता को महत्त्व प्रदान करते हुए आपने फरमाया कि जीवन में शिक्षा के अभाव में साधना अपूर्ण मानी गई है। शिक्षा का वही महत्त्व है जो शरीर में प्राण , मन व आत्मा का है। जीवन में चमक-दमक , गति-प्रगति, व्यवहार-विचार सब शिक्षा से ही सुन्दर होते हैं। संसार की सब उपलब्धियों में शिक्षा सबसे बढ़कर है। दीक्षा के साथ भी शिक्षा अनिवार्य है। यही कारण है कि आप शिष्य-शिष्याओं एवं श्रावक-श्राविकाओं को स्वाध्याय-साधना रूप शिक्षा की अनमोल प्रेरणा देते रहे। आचार्य भगवन्त का दृढ़ मंतव्य रहा कि जीवन निंदा से नहीं निर्माण से निखरता है। निंदक भी कभी कुछ दे जाता है। जैसा कि कवि का कथन है - “निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय । बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ॥” अत: आपने निंदक को भी अपना उपकारी बताया। स्तुति वालों से कहा –'तुम्हारा मेरे पर स्नेह है, अत: तुम राग से कहते हो।' तो विरोध वालों से कहा – “विरोध मेरे लिए विनोद है।' अनुकूल - प्रतिकूल हर स्थिति में गुलाब की तरह मुस्कराते रहना, यही समता-साधना की सही कला है, और आप उसी समता-साधना के साधक शिरोमणि रहे । सं. २०४१ के जोधपुर चातुर्मास में क्षमापना के उपलक्ष्य में युवाचार्य महाप्रज्ञ रेनबो हाउस पधारे तब उन्होंने कहा था -“लोग कहते हैं आप अल्पभाषी हैं, कम बोलते हैं। पर कहाँ हैं आप अल्प भाषी ? आप बोलते हैं, बहुत बोलते हैं। आपका जीवन बोलता है, संयम बोलता है।" ____ अस्वस्थता की स्थिति देखकर सन्तों ने सहारा लेकर विराजने का निवेदन किया तो आचार्य भगवंत बोले“धर्म का सहारा ले रखा है।” यही बात पाली में विदुषी महासती श्री मैना सुन्दरी जी के कहने पर भगवंत ने कही थी - “आपने मेरे गुरुदेव को नहीं देखा, नहीं तो ऐसा नहीं कहती।" आप संघ में रहे तब भी एवं बाहर रहे तब भी सभी महापुरुषों का आपके प्रति समान आदर भाव रहा। | आचार्य श्री आत्माराम जी म. आपके लिये 'परिसवरगंधहत्थीणं' पद का प्रयोग करते थे। आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी म. समय-समय पर समस्या का समाधान मंगाते थे। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म.सा. स्वयं को साहित्य के क्षेत्र | में लगाने में आपका उपकार मानते थे। प्रवर्तक श्री पन्नालाल जी म. आपको विचारक एवं सहायक मानते थे और प्रत्येक स्थिति में साथ रहे। आचार्य श्री जवाहरलाल जी म. ने आपको सिद्धांतवादी एवं परम्परावादी माना। ____ आप गुणप्रशंसक व गुणग्राहक रहे तथा परनिंदा से सदैव दूर रहे और जीवन पर्यन्त इसी की प्रेरणा की। आप प्रचार के पक्षधर थे, किन्तु आचार को गौण करके प्रचार के पक्ष में नहीं रहे । “जिनके मन में गुरु बसते हैं, वे शिष्य | धन्य हैं, पर जो गुरु के मन में रहते हैं, जिनकी प्रशंसा शोभा गुरु करते हैं, वे उनसे भी धन्य धन्य हैं।" आप श्री पर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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