SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७९ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड • स्वाध्याय से ही आप आत्म-निर्माण और समाज-निर्माण के साथ जिनशासन को समुन्नत करने में समर्थ होंगे । जो स्वाध्याय ज्ञानावरणीय कर्म को खपाने वाला, नष्ट करने वाला है, जिस स्वाध्याय से स्वयं प्रभु महावीर तथा सभी तीर्थंकरों ने और अनन्तान्त साधकों ने ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म को मूलतः नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त किया और अनाथी मुनि जैसे सम्राट् श्रेणिक के भी पूज्य बन गये, वह स्वाध्याय हम सबके लिए परम कल्याणकारी अमोघ शक्ति है। • अगर आप अपने आभ्यन्तर में रही अमोघ शक्ति, जो प्रच्छन्न रूप में विद्यमान है, उसे पहचानना चाहते हैं, प्रकट करना चाहते हैं तो शुद्ध और एकाग्रमन से नित्यप्रति नियमित रूप से स्वाध्याय करिये। मन के कलुष को, क्लेश को मिटाने में, समाज में व्याप्त बुराइयों, बीमारियों को समाप्त करने में, मानसिक दुःखों को मूलतः विनष्ट करने में और आत्मा पर लगे कर्ममैल को पूर्णतः ध्वस्त कर आत्मा को सच्चिदानंद शुद्ध स्वरूप प्रदान करने में सक्षम अमोघ शक्ति स्वाध्याय ही है। अतः आप लोग स्व-पर कल्याणकारी स्वाध्याय का अलख जगाइये । • स्वाध्याय के द्वारा प्रौढ़जन भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए एकाग्रता, तन्मयता और दृढ़ संकल्प के साथ अटूट लगन की भी आवश्यकता है। सत्प्रवृत्ति में अनुराग और दुष्प्रवृत्ति के त्याग के लिए ज्ञान का होना अत्यावश्यक है। राम की तरह आचरण करना या रावण की तरह, यह ज्ञान के बिना नहीं जाना जा सकता है। | • भगवान् महावीर ने उत्तम शास्त्रों का लक्षण यह बतलाया है कि 'जं सुच्चा पडिवज्जंति तवं खंतिमहिसयं ।' जिस शास्त्र को पढ़कर या सुनकर मन को सुप्रेरणा मिले तथा क्षमा, तप, अहिंसा आदि की भावना बलवती हो। वह उत्तम शास्त्र है। जैसे मुझ में लगे कांटे मेरे लिए दुःखदायक हैं वैसे ही दूसरों के लिए भी दुःखद होंगे, ऐसी भावना या उत्तम वृत्तियाँ जिसके अध्ययन से जगे, वही उत्तम शास्त्र है और ऐसे शास्त्रों के अध्ययन से ही मनुष्य में विमल ज्ञान चमकता है और वह जीवन को उच्चतम बनाता है । • यदि सामूहिक स्वाध्याय का रिवाज होगा, तो मन की दुर्बलता दूर भगेगी और करने योग्य शुभ कर्मों में प्रवृत्ति एवं दृढ़ता जोर पकड़ती जाएगी। • सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र से ही व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण कर सकता है। स्वाध्याय ही इन सबका मूल है। इसके साधन से ज्ञान, दर्शन और चारित्र निर्मल रखा जा सकता है। धर्मशास्त्र और अच्छे ग्रन्थ, जिनसे जीवन में तप, क्षमा और अहिंसा की ज्योति जगे और योग-जीवन उत्तरोत्तर आगे बढ़े तथा भोग-जीवन घटे, उन ग्रन्थों को मर्यादा और विधि के साथ पढ़ना व पढ़ाना यही स्वाध्याय है। हाँ, इन ग्रन्थों को पढ़ साथ-साथ पढ़ाना भी स्वाध्याय के अर्थ में सम्मिलित किया गया है। • यदि प्रारम्भ में किसी शास्त्र का पठन-पाठन कर रहे हैं तो कुछ व्रत ग्रहण करके पठन-पाठन करना चाहिये । यदि पहले-पहल आचारांग, सूत्रकृतांग अथवा अन्य किसी आगम का पठन करना हो तो किसी मुनिराज अथवा शास्त्रों के विशेषज्ञ के चरणों में बैठ कर व्रतग्रहणपूर्वक पढ़ना प्रारम्भ करना चाहिये । यदि शास्त्र से भिन्न किसी धार्मिक पुस्तक का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं तो इतना आदर तो होना ही चाहिये कि अर्हत् भगवान् और गुरुदेव को नमस्कार कर, विशुद्ध स्थान में बैठ कर पढ़ना प्रारम्भ करें। यदि शरीर में बैठे रहने की शक्ति हो तो स्थिर आसन से बैठ कर ही धार्मिक पुस्तकों को पढ़ना चाहिये। जिस प्रकार उपन्यासों, कथा-कहानियों की पुस्तकों को सोते, उठते-बैठते, विविध आसनों से लेटे अथवा बैठे रह कर पढ़ते हैं, उस प्रकार कभी नहीं पढ़ना चाहिये । कुछ व्यक्ति मर्यादा की इन बातों से घबरा कर अथवा वीतराग- वाणी का महत्त्व न समझ पाने के कारण शास्त्रों का
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy