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________________ ४७४ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं का वर्जन करके चलो क्योंकि जो आध्यात्मिक मार्ग की ओर आगे बढ़ाने की बजाय आध्यात्मिक मार्ग से पीछे मोड़ती है उस कथा का नाम विकथा है। मानव निरन्तर ऐसी कथाएँ सुनता रहता है जो राग बढ़ाने वाली हैं, भोग बढ़ाने वाली हैं, क्रोध बढ़ाने वाली हैं। परिणाम स्वरूप उसके मन में राग-द्वेष की वृद्धि होती है। इसलिये प्रभु ने कहा कि जो आत्मभाव की ओर ले जाने वाली नहीं हैं, आत्मभाव से मोड़ने वाली हैं, ऐसी कथाओं से दूर रहो। आत्मा में जब तक शुद्ध दृष्टि उत्पन्न नहीं होती , शुद्ध आत्मकल्याण की कामना नहीं जागती और मन लौकिक एषणाओं से ऊपर नहीं उठ जाता, तब तक शुद्ध सामायिक की प्राप्ति नहीं होती। अतएव लौकिक कामना से प्रेरित होकर सामायिक का अनुष्ठान न किया जाय, वरन् कर्मबन्ध से बचने के लिए संवर की प्राप्ति के लिए सामायिक का आराधन करना चाहिये । काम, राग और लोभ के झोंकों से साधना का दीप मन्द हो जाता है और कभी-कभी बुझ भी जाता है। अतएव आगमोक्त विधि से उत्कृष्ट प्रेम के साथ सामायिक करनी चाहिये। जो साधक पूर्ण संयम धारण कर तीन करण तीन योग से सामायिक नहीं कर पाता ऐसे गृहस्थ को आत्महितार्थ दो करण तीन योग से आगार सामायिक अवश्य करना चाहिए। क्योंकि वह भी विशिष्ट फल की साधक है, जैसा कि नियुक्ति में कहा है - सामाइयम्मि उकए, समणो इव सावओ हवइ, एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा। अर्थात् सामायिक करने पर श्रावक श्रमण-साधु की तरह होता है। वह अल्पकाल के लिये पापों का त्याग करके भी श्रमण जीवन के लिये लालायित रहता है। इसलिये गृहस्थ को समय-समय पर सामायिक साधना करना चाहिये। सामायिक करने का एक लाभ यह भी है कि गृहस्थ संसार के विविध प्रपंचों में विषय-कषाय और निद्रा-विकथा आदि में निरन्तर पाप संचय करता रहता है। अत: सामायिक के द्वारा घड़ी भर उनसे बचकर आत्म-शान्ति का अनुभव कर सकता है। क्योंकि सामायिक साधना से आत्मा मध्यस्थ होती है। कहा भी है जीवो पमायबहुलो, बहुसो उ वि य बहुविहेसु अत्येसु। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा । • सामायिक साधना वह शक्ति है जो व्यक्ति में ही नहीं, समाज और देश में बिजली पैदा कर सकती है। व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन में यह साधना आनी चाहिए जिससे उसका व्यापक प्रभाव अनुभव किया जा सके। अगर आप अपने किसी एक पड़ौसी की भावना में परिवर्तित ला देते हैं और उसके जीवन को पवित्रता की ओर प्रेरित करते हैं, तो समझ लीजिए कि आपने समाज के एक अंग को सुधार दिया है। प्रत्येक व्यक्ति यदि इसी | प्रकार सुधार के कार्य में लग जाय तो समाज का कायापलट होते देर न लगे। स्वाध्याय • 'स्वाध्याय' शब्द का हम पद विभाग करेंगे तो इसमें दो शब्द पायेंगे। एक तो 'स्व' और दूसरा 'अध्याय' । इस पद विभाग का दो प्रकार से अर्थ किया जाता है। एक तो 'स्वस्य अध्ययनम्' और दूसरा 'स्वेन अध्ययनम्'। 'स्वस्य अध्ययनम्' का अर्थ है-अपने आपका अध्ययन करना, यह स्वाध्याय का एक अर्थ है। 'स्वेन अध्ययनम्' का अर्थ है, अपने द्वारा अध्ययन करना अर्थात् स्वयं द्वारा स्वयं का अध्ययन करना; अपने द्वारा अपने आपको
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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