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________________ ४७० नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं सामायिक से प्रारम्भ होते हैं। तीर्थंकर भगवान् भी जब साधना मार्ग में प्रवेश करते हैं तो सर्व प्रथम सामायिक चारित्र स्वीकार करते हैं। जैसे-आकाश संपूर्ण चराचर वस्तुओं का आधार है वैसे ही सामायिक चरणकरणादि गुणों का आधार है। “सामायिकं गणानामाधारः, खमिव सर्वभावानाम। न हि सामायिकहीनाश्चरणादिगुणान्विता यन ।। • बिना समत्व के संयम या तप के गुण टिक नहीं सकते। हिंसादि दोष सामायिक में सहज ही छोड़ दिये जाते हैं। अत: आत्म-स्वरूप को पाने की इसे मुख्य सीढ़ी कह सकते हैं। भगवती सूत्र' में स्पष्ट कहा है आया खलु सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे।' अर्थात् आत्मा ही सामायिक है और आत्मा (आत्म स्वरूप की प्राप्ति) ही सामायिक का प्रयोजन है। सामायिक तन और मन की साधना है। इस व्रत की आराधना में तन की दृष्टि से इन्द्रियों पर नियन्त्रण स्थापित | किया जाता है और मन की दृष्टि से उसके उद्वेग एवं चांचल्य का निरोध किया जाता है । मन में नाना प्रकार के जो संकल्प विकल्प होते रहते हैं, राग की, द्वेष की , मोह की या इसी प्रकार की जो परिस्थिति उत्पन्न होती रहती है, उसे रोक देना सामायिक व्रत का लक्ष्य है। समभाव की जागृति हो जाना शान्ति प्राप्ति का मूल मंत्र है। • सामायिक द्वारा साधक अपनी मानसिक दुर्बलताओं को दूर करके समभाव और संयम को प्राप्त करता है। अतएव प्रकारान्तर से सामायिक-साधना को मन का व्यायाम कहा जा सकता है। जीवन में सामायिक साधना का स्थान बहुत ही महत्त्व का है। सामायिक से अन्त:करण में विषमता के स्थान पर समता की स्थापना होती है। उसका अन्य उद्देश्य मानव के अन्तस्तल में धधकती रहने वाली विषय-कषाय की भट्टी को शान्त करना है। जीवन में जो भी विषाद, वैषम्य, दैन्य, दारिद्र्य, दुःख और अभाव है, उस सब की अमोघ औषध सामायिक है। जिसके अन्त:करण में समभाव के सुन्दर सुमन सुवासित होंगे, उसमें वासना की बदबू नहीं रह सकती। जिसका जीवन साम्यभाव के सौम्य आलोक से जगमगाता होगा, वह अज्ञान, आकुलता एवं चित्त विक्षेप के अन्धकार में नहीं भटकेगा। • सामायिक की साधना के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों की शुद्धता आवश्यक है। जो हमारी सिद्धि के भावों का, वास्तविक गुणों का कारण होता है वह द्रव्य है। जिस तन से हम सामायिक करने जा रहे हैं वह उद्वेलित तो नहीं है, उत्तेजित तो नहीं है, राग द्वेष से ग्रस्त तो नहीं है और जिन उपकरणों की सहायता से (यथा-आसन, मुंहपत्ती, पूंजणी, स्वाध्याय योग्य ग्रन्थ, माला आदि) सामायिक की जा रही है वे साफ, स्वच्छ और शुद्ध होने चाहिए। भावों को बढ़ाने में वे उपकरण भी सहायक होते हैं। ये उपकरण शुद्ध सरल और सादे हों। ऐसा न हो कि माला चांदी की हो, पूंजणी में घूघरे लगे हों और मुंहपत्ती रत्न जड़ित हो। • द्रव्य की तरह क्षेत्र शुद्धि भी आवश्यक है। यदि आप चाहते हैं समता, और बैठते हैं विषमता में तो समता कैसे आयेगी? जहां बारूद के ढेर हों, वहां कोई रसोई करने की जगह मांगे तो क्या होगा ? वहां तो बीड़ी तक पीने की मनाई होती है। यदि उस निषिद्ध क्षेत्र में कोई बीड़ी पीता पकड़ा जाता है तो वह दंड का भागी होता है। जैसे कमाई के लिये दुकान है, पढ़ने के लिये स्कूल है, न्याय के लिए कोर्ट है, उसी प्रकार सामायिक के लिये भी नियत स्थान होना आवश्यक है। कई बार सर्दी के कारण लोग स्थानक में आकर सामायिक नहीं करते। वे
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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