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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४६३ • माँ-बाप बीमार हो जावें तो कुछ रुपये खर्च करके अस्पताल में उनके इलाज की व्यवस्था कर देते हैं, लेकिन घर में माँ-बाप की सेवा करना मुश्किल है। इसका मतलब यह नहीं कि उनकी सेवा करने वाला कोई नहीं है। सेवा करने वाला बेटा है, लेकिन उसकी आत्मा में घृणा भाव हैं, इस कारण वह माता-पिता की सेवा नहीं कर पाता। सेवा करने वाले को भूखा भी रहना पड़े। सर्दी में कपड़े पूरे न रहें तो सहन करना पड़े। यदि लड़का सेवाभावी है तो वह अपने माँ-बाप के कपड़े भी साफ कर रहा है, मल-मूत्र भी साफ कर रहा है। कोई उससे यह कहे कि यह काम तुम क्यों कर रहे हो, कोई नौकर नहीं है क्या? तो वह कहेगा कि नौकर तो है लेकिन मेरा अहोभाग्य है कि माँ-बाप जिन्होंने मुझे जन्म दिया है उनकी सेवा करने का मौका मिला है। उनकी सेवा नहीं करूँगा तो किसकी करूँगा? जो लोग अज्ञानतावश मच्छी बेचते, शिकार करते और पशु बेचकर आपको पैसा चुकाते हैं, आप लोग उनको सान्त्वना देते हुए पाप की बुराई समझावें और कुछ सहानुभूति रखें तो उनका जीवन सुधर सकता है हिंसा घट सकती है और थोड़े त्याग में अधिक लाभ हो सकता है। सम्पन्न लोगों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। • धन से सेवा करने वाले के द्वारा की जाने वाली मदद कभी रुक सकती है। लेकिन तन वाला, मन वाला, वाणी बल वाला, दिमाग बल वाला जो है उसके द्वारा की जाने वाली सहायता का रास्ता कभी बंद होने वाला नहीं है। • धर्म और शास्त्र की सेवा वही करेगा जिसके दिल में ओज, तेज, वीरता और कर्तव्यपरायणता हो। जिसमें वीरता, तेज और ओज नहीं है, जो जीवन का भोग देने को तैयार नहीं है, वह धर्म की सेवा नहीं कर सकेगा। समाधि-मरण • अपना शरीर छूटने का काल नजदीक प्रतीत हो , उस समय ज्ञानदृष्टि को जागृत रखकर सोचना है कि शरीर और आत्मा अलग हैं। शरीर क्षणभंगुर एवं नाशवान है तो आत्मा अविनाशी एवं ज्ञानमय है। रोग-शोक शरीर को होते हैं, आत्मा को नहीं। • मरण से दुनिया डरती है, परन्तु ज्ञानी मरण को महोत्सव मानते हैं। जैसे मुसाफिर खाने को मुसाफिर मुद्दत पूरी होते ही खुशी से छोड़ देता है, ऐसे ही ज्ञानी स्थिति पूरी होते ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग करने हेतु तत्पर रहता है। ज्ञानी शरीर की वेदना से व्याकुल नहीं होता। वह उस समय अधिक से अधिक आत्मशुद्धि का ध्यान रखता है। • उत्तम मरण के लिये इन्द्रियों के विषय और मन की कलुषित वृत्तियों का सर्वथा परित्याग करके संसार के समस्त प्राणिसमूह से क्षमायाचना कर निरंजन निराकार परमात्मा के शुद्ध स्वरूप में ध्यान रखना ही कल्याण का मार्ग - • जीवनकाल में लगे दोषों का भगवत् चरणों में निवेदन कर हार्दिक प्रायश्चित्त , समस्त पापों का मनसा, वचसा, कर्मणा परित्याग, जीवमात्र से क्षमायाचना कर मैत्रीभाव, पुत्र, मित्र, कलत्र और इस शरीर तक से ममता का | परित्याग कर समाधिमरण का वरण करना चाहिए। दुर्गुणी मानव परिग्रह के पीछे हाय-हाय करते मरता है। किन्तु ज्ञानी भक्त मरते समय सद्गुणों का धन संभालता है। अतएव लड़की जैसे ससुराल से पिता के घर जाने में प्रसन्नचित्त होती है, वैसे वह भी परलोक की ओर
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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