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________________ रगंधहत्थीणं ४४६ • जिस प्रकार गृहस्थ वर्ग की सम्पदा धन-धान्य और वैभव है उसी प्रकार श्रमण-श्रमणी समाज की सम्पदा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र है। । किसी के यहाँ जब कोई अतिथि आता है तो गृहपति अच्छे-अच्छे पदार्थों से उसका सत्कार करता है। संत भी अतिथि हैं, परन्तु भेंट पूजा, पैसे लेने वाले नहीं हैं। उनका आतिथ्य व्रत-नियम से होता है। सत्संग से आप || शिक्षा लेकर जीवन शुद्धि करें, इसी में सन्तों की प्रसन्नता है। शास्त्र और श्रमण संघ की मर्यादा है कि साधु-साध्वी फोटो नहीं खिंचवाए और मूर्ति, पगल्ये आदि कोई स्थापन्न || करे तो उपदेश देकर रोके । रुपये पैसे के लेन-देन में नहीं पड़े और न कोई टिकिट आदि अपने पास रखे।। साधु-साध्वी स्त्री-पुरुषों को पत्र नहीं लिखे और न मर्यादा विरुद्ध स्त्रियों का सम्बन्ध ही रखे। तपोत्सव पर दर्शनार्थियों को बुलाने की प्रेरणा नहीं करे। महिमा, पूजा एवं उत्सव से बचे । धातु की वस्तु नहीं रखे, न अपने || लिए क्रीत वस्तु का उपयोग करे।। संत लोगों का काम तो उचितानुचित का ध्यान दिलाकर रोशनी पहुँचाना, सर्चलाइट दिखाना, मार्ग बताना है, || लेकिन उस मार्ग पर चलना तो व्यक्ति के अधीन है। • साधु सम्पूर्ण त्यागमय जीवन का संकल्प लेकर जन-मानस के सामने साधना का महान् आदर्श उपस्थित करता है। वह रोटी के लिए ही सन्त नहीं बनता। संत की साधना का लक्ष्य पेट नहीं ठेट है। वह मानता है कि रोटी शरीर पोषण का साधन है और शरीर उपासना एवं सेवा का मूल आधार। तप और त्याग के वातावरण में त्यागी पुरुषों के जीवन का मूक प्रभाव लोगों पर पड़ता ही रहता है और उनकी जीवनचर्या से भी प्रेरणा मिलती रहती है। जैसे पुष्पोद्यान का वातावरण मन को प्रफुल्लित करने में परम सहायक होता है, वैसे संत-संगति भी आत्मोत्थान में प्रेरणादात्री मानी गयी है। देश और समाज को घर में व्याप्त अनैतिकता आदि के दंश एवं समाजघाती कीटाणुओं के दुष्प्रभाव से मुक्त कराने में, दुष्प्रवृत्तियों की ओर से देशवासियों का मन मोड़ने में त्यागी सन्त-सतियों का आचारनिष्ठ चरित्र ही समर्थ है। शस्त्रधारी सैनिक डण्डा मार सकता है, मन को नहीं मोड़ सकता। मन मोड़े बिना इन बुराइयों को जड़ से दूर नहीं किया जा सकता। • जो परोपकारी सन्त-सतीवृन्द त्यागी-विरागी तपस्वी सन्त-समाज सारे देश में, कोने-कोने में फैला हुआ है, उसके सत्संग में, उसके समागम में आने वाले कितने ही युवक, बाल, वृद्ध और दुर्व्यसनों में फंसे लोगों के जीवन में सुधार होता है। बहुतों का हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। प्रत्येक नगर में, ग्राम में ऐसे अनेक बालक हैं, धूम्रपान का व्यसन उनको लग गया है और अनेक प्रकार के दुर्व्यसनों के भी शिकार हो गये हैं। क्या उनका सुधार शस्त्रधारी सैनिकों से हो पायेगा ? नहीं, उनके लिये शस्त्रधारी सैनिक उपयोगी नहीं, अपितु सन्त-सती जन ही उनके मन को मोड़ सकते हैं। वे ही लोगों में फैले दुर्व्यसनों को जड़ से मिटा सकते हैं और उनकी शक्ति की दिशा को देश के, समाज के अभ्युत्थान के कार्यों की तरफ मोड़ सकते हैं। साधना करने वाले साधकों को तीन रूपों में रखा जा सकता है:- (१) चेतनाशील और स्वस्थ (२) चेतनाशील किंतु अस्वस्थ (३) चेतनाशून्य-मात्र वेष को धारण करने वाले । प्रथम चेतनाशील साधक वे हैं जो बिना किसी पर की प्रेरणा के कर्तव्य-साधन में सदा जागृत रहते हैं। आचार या विचार में जरा भी स्खलना आई कि वे तत्काल संभल कर इष्ट मार्ग में प्रवृत्त होते हैं और अनिष्ट से निवृत्त होते हैं। विषय-कषाय पर विजय प्राप्त करने
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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