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________________ ४४४ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं पहले के लिखे हुए शास्त्र जैसलमेर और पाटन में विद्यमान हैं। उनमें से अनेक भोज पत्रों पर, ताड़ पत्रों पर, वस्त्र के बने पत्रों पर लिखे हुए हैं। हमारे पूर्वाचार्यों ने, संतों ने, पूर्वजों ने, हमारे धर्मशास्त्रों के संरक्षण में कितना परिश्रम किया। पर आज हमारे शिक्षित नवयुवकों को, भाई-बहनों को उन धर्मशास्त्रों-धर्मग्रन्थों को उठाकर देखने की भी फुर्सत नहीं है, धर्मशास्त्रों को पढ़ने की रुचि नहीं है। तो क्या यह आपकी ज्ञान-भक्ति कही जायेगी, ज्ञान का विनय कहा जायेगा? शिक्षा विद्या जीवन चलाने के लिए नहीं, किन्तु जीवन निर्माण के लिए है। इसका कारण बताते हुए शास्त्रकारों ने कहा कि साक्षरता रहित ज्ञान वाले पशु-पक्षी भी जीवन चलाते देखे जाते हैं। खाना, पीना, घर बनाना आदि कलाओं का ज्ञान उनमें भी पाया जाता है। फिर शिक्षण शालाओं में शिक्षा ग्रहण कर अगर मानव भी इतना ही कर पाये तो अशिक्षित व शिक्षित में कुछ भी अन्तर नहीं रह जायेगा। इससे यह धारणा पुष्ट होती है कि शिक्षा जीवन चलाने के लिए नहीं, अपितु जीवन बनाने के लिए है। • अगर विद्या पढ़कर भी मानव में अहिंसा, सत्य, बंधुत्व, क्रोधादि शमन के गुण न आये तो विद्या दुःखदायी हो जायेगी। • असीमित आवश्यकता बढ़ाने वाले ज्ञान की शिक्षा तो शिक्षण शालाएँ भी दे रही हैं। उस ज्ञान से जीवन चलेगा, | पर बनेगा नहीं। • आज तथाकथित शिक्षणालयों में जो डाक्टर, वकील आदि पैदा हो रहे हैं वे यांत्रिक विद्या तो जानते हैं, पर आत्मविद्या नहीं। हमारे शिक्षणालयों का यह भी उद्देश्य होना चाहिए कि उनमें छात्र सदाचारी व ईमानदार बनें। यदि इस द्देश्य की पर्ति आप नहीं कर पाये तो लाखों का व्यय और जीवन का श्रम सफल नहीं हो सकेगा। • आज हजारों शिक्षण संस्थाएँ चाहती हैं, फिर भी बच्चों में नैतिकता क्यों नहीं आ पाती? इसके लिए पहले शिक्षकों का दिमाग साफ और शुद्ध होना चाहिए। उनमें राष्ट्रीयता की भावना होनी चाहिए। वे झूठे नहीं हों। शिक्षक स्वयं व्यसनी नहीं हों। वे अर्थ का संग्रह करने वाले और इधर-उधर बच्चों पर हाथ साफ करने वाले नहीं हो। किसी को परीक्षा में पास करने के लिए हेरा-फेरी करने वाले नहीं हों । ऐसे दोष यदि शिक्षकों में होंगे तो वे नैतिकता की बात बच्चों को नहीं सिखा सकेंगे। • आज के अध्यापक का जितना ध्यान शरीर, कपड़े, नाखून, दांत आदि बाह्य स्वच्छता की ओर जाता है, उतना उनकी चारित्रिक उन्नति की ओर नहीं जाता। बाह्य स्वास्थ्य जितना आवश्यक समझा जा रहा है अन्तरंग भी उतना ही आवश्यक समझा जाना चाहिए। अन्तर में यदि सत्य-सदाचार और सुनीति का तेज नहीं है तो बाहरी चमक-दमक सब बेकार साबित होगी। सही दृष्टि से तो स्वस्थ मन और स्वस्थ तन एक दूसरे के पूरक व सहायक हैं। वास्तव में जिस विद्या के द्वारा मनुष्य, हित, अहित, उत्थान और पतन के मार्ग को समझ सके वही सच्ची विद्या है। जैसे-“वेत्ति हिताहितमनया सा विद्या"। दूसरे व्याख्याकार का मत है कि जो आत्मा का बंधन काट दे, वही सही विद्या है-“सा विद्या या विमुक्तये।। • आज का मनुष्य विद्या को जीविका-संचालन का साधन मानता है, निर्वाह का संबल मानता है, यह नितान्त भ्रम
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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