SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 499
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४३५ युवक/ युवक-संघ समय के अनुसार समाज-निर्माण का काम करने में ज्यादा सक्षम तरुण व किशोर हैं, और इस कार्य का अधिक उत्तरदायित्व भी इन पर ही है। वृद्धों को कहूँ इसके बजाय आज अधिक दायित्व नौजवानों का है, क्योंकि वृद्धों की संख्या नौजवानों की अपेक्षा चौथाई भी नहीं है। आजकल के युग की माँग है कि बहुमत से कार्य करें और बहमत है नौजवानों का। दसरी बात यह है कि जब तक समान विचारवालों का संगठन नहीं बनता. तब तक काम नहीं होता। यह भी आवश्यक है कि काम करने के लिए चुनिंदा, सक्षम और कर्त्तव्यशील व्यक्ति होने चाहिए, जो यह सोचते हों कि हमें हमारे जीवन में कुछ काम करके अच्छा उदाहरण छोड़ जाना है। • युवक संघ की सामूहिक आवाज होनी चाहिए कि हम धर्म ध्वज को कभी भी नीचा नहीं होने देंगे तथा नित | स्वाध्याय करके ज्ञान की ज्योति जगाएंगे। ऐसा संकल्प लेने वाले अनेक साधक हो गये हैं जिनके श्रुत ज्ञान के बल से शासन को बल मिला। धन को ताले में बन्द करो या जमीन में गाड़ दो, फिर भी वह नष्ट होगा, अनेक बड़े बड़े बैंक फेल हो गए। जमीन में भी कभी-कभी फसल नहीं आती। ब्याज में लगा धन भी नष्ट हो जाता है। अतएव उसकी चिन्ता व्यर्थ है, क्योंकि वह नाशवान है, और लक्ष्मी चपला है। अतः श्रुत ज्ञान की चिन्ता करो, जो जीवन के लिए परम धन है। रक्षाबंधन • रक्षाबंधन पर्व के पीछे यही पवित्र पृष्ठभूमि, यही पुनीत उद्देश्य और यही पावन भावना है कि मानव यतना का सूत्र बांध अपनी आत्मा की तथा प्राणिमात्र की रक्षा कर अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हो। • जिन-शासन की मर्यादा में रहते हुए प्रत्येक जीव की रक्षा करना, अपनी आत्मा की तथा अपने आत्म-गुणों की रक्षा करना, स्वधर्मी बंधुओं की रक्षा करना और चतुर्विध संघ की रक्षा करना, यही पवित्र भावना, यही लोक कल्याणकारी, स्व-पर कल्याणकारी भावना इस रक्षाबंधन पर्व के पीछे निहित है। जैन धर्म के अनन्य उपासक कलिंगाधिपति महाराज महामेघवाहन-भिक्खुराय खारवेल ने पाटलिपुत्र पर प्रबल आक्रमण कर पुष्यमित्र को समुचित दण्ड दे चतुर्विध जैन-संघ की रक्षा की। अति प्राचीन काल (बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रत स्वामी के तीर्थकाल) में भी जैन श्रमण-संघ पर इस प्रकार का घोर संकट आया। उस समय लब्धिधारी महामुनि विष्णु कुमार ने अपने लब्धि-बल से श्रमण-संघ की रक्षा की। तभी से रक्षाबंधन का पर्व प्रचलित हुआ, ऐसा माना जाता है। राजनीति-अर्थनीति-धर्मनीति राजनीति और धर्मनीति दोनों में त्याग का महत्त्व है। एक में यह त्याग केवल अपने स्वार्थ-साधन, मान-मर्यादा, पद और नामवरी आदि के लिए है, पार्टी या राजनीति को सबल बनाने के लिये भी त्याग किया जाता है, किन्तु धर्मनीति में त्याग परमार्थ के लिये किया जाता है। • राजनीति में कहो कुछ और करो कुछ की नीति अपनायी जाती है। योजना कुछ बनायी जाती है एवं क्रियान्विति कुछ की जाती है। इस प्रकार राजनीति का स्वरूप अस्थिर, दोलायमान और चंचलतामूलक है, किन्तु धर्मनीति
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy