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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ४२९ रहता है। पतित भावनाओं के कारण दिव्य भावनाएँ पास भी नहीं फटकने पातीं। अतः जो पुरुष साधना के मार्ग पर चलने का अभिलाषी हो उसे अपनी कामवासना को जीतने का सर्वप्रथम प्रयास करना चाहिए। ब्रह्मचर्य के विषय में अनेक प्रकार के भ्रम फैले हुए हैं और फैलाये जा रहे हैं। एक भ्रम यह है कि कामवासना अजेय है, लाख प्रयत्न करने पर भी उसे जीता नहीं जा सकता। ऐसा कहने वाले लोगों को संयम-साधना का अनुभव नहीं है। जो विषय-भोग के कीड़े बने हुए हैं, वे ही इस प्रकार की बातें कहकर जनता को अधःपतन की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं। 'स्वयं नष्टः परान्नाशयति'-जो स्वयं नष्ट है वह दूसरों को भी नष्ट करने की कोशिश करता है। ऐसे लोग स्थूलिभद्र जैसे महापुरुषों के आदर्श को नहीं जानते हैं, न जानना ही चाहते हैं। वे अपनी दुर्बलता को छिपाने का जघन्य प्रयास करते हैं। वास्तविकता यह है कि ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव है और मैथुन विभाव या पर-भाव है। स्वभाव में प्रवृत्ति करना न अस्वाभाविक है और न असंभव ही। भारतीय संस्कृति के अग्रदूतों ने, चाहे वे किसी धर्म व सम्प्रदाय के अनुयायी रहे हों, ब्रह्मचर्य को साधना का अनिवार्य अंग माना है। • सम्पूर्ण त्यागी साधुओं के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का अनिवार्य विधान है और गृहस्थ के लिए स्थूल मैथुन त्याग का विधान किया गया है। सद्गृहस्थ वही कहलाता है जो पर-स्त्रियों के प्रति माता और भगिनी की भावना रखता है। जो पूर्ण ब्रह्मचर्य के आदर्श तक नहीं पहुंच सकते, उन्हें भी देशतः ब्रह्मचर्य का तो पालन करना ही चाहिए। परस्त्रीगमन का त्याग करने के साथ-साथ जो स्वपत्नी के साथ भी मर्यादित रहता है, वह देशतः ब्रह्मचर्य का पालन करके भी संयम का पालन करता है। • जहाँ स्त्री, नपुंसक और पशु निवास करते हों, वहाँ ब्रह्मचारी साधु को नहीं रहना चाहिए। ब्रह्मचारिणी स्त्री के लिए भी यही नियम जाति-परिवर्तन के साथ लागू होता है। इसी प्रकार मात्रा से अधिक भोजन करना, उत्तेजक भोजन करना, कामुकता वर्धक बातें करना, विभूषा-शृंगार करना और इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति धारण करना, इत्यादि ऐसी बातें हैं जिनसे ब्रह्मचारी को सदैव बचते रहना चाहिए। जो इनसे बचता रहता है, उसके ब्रह्मचर्य व्रत को आंच नहीं आती। जिस कारण से भी वासना भड़कती हो, उससे दूर रहना ब्रह्मचारी के लिए | आवश्यक है। तारुण्य या प्रौढ़ावस्था में यदि सहशिक्षा हो तो वह ब्रह्मचर्य पालन में बाधक होती है। अच्छे संस्कारों वाले बालक-बालिकाएँ भले ही अपने को कायिक सम्बन्ध से बचा लें, किन्तु मानसिक अपवित्रता से बचना तो बहुत कठिन है। और जब मन में अपवित्रता उत्पन्न हो जाती है तो कायिक अधः पतन होते देर नहीं लगती। तरुण अवस्था में अनंगक्रीडा की स्थिति उत्पन्न होने का खतरा बना रहता है। अतएव माता-पिता आदि का यह परम कर्तव्य है कि वे अपनी सन्तति के जीवन-व्यवहार पर बारीक नजर रखें और कुसंगति से बचाने का यत्न करें। उनके लिए ऐसे पवित्र वातावरण का निर्माण करें कि वे गन्दे विचारों से बचे रहें और खराब आदतों से परिचित न हो पाएँ। काम-वासना की उत्तेजना के यों तो अनेक कारण हो सकते हैं और बुद्धिमान व्यक्ति को उन सबसे बचना चाहिए परन्तु दो कारण उनमें प्रधान माने जा सकते हैं-(१) दुराचारी लोगों की कुसंगति (२) खानपान संबंधी असंयम । व्रती पुरुष भी कुसंगति में पड़कर गिर जाता है और अपने व्रत से भ्रष्ट हो जाता है। इसी प्रकार जो लोग आहार के सम्बन्ध में असंयमी होते हैं, उत्तेजक भोजन करते हैं, उनके चित्त में भी काम-भोग की अभिलाषा तीव्र रहती
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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