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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ४२४ • जिस प्रकार सूर्य की किरणों को आत्मसात् कर लेने वाला दर्पण तेजोमय बन जाता है, उसी प्रकार आत्मा जब स्मरण-ध्यान के माध्यम से परमात्मा की परमज्योति अपने में प्रज्वलित करता है तब वह भी लोकोत्तर तेजोनिधान जाता है। • प्रार्थना का अर्थ है परमात्मा के साथ रुख मिल जाना और दोनों के बीच कोई पर्दा नहीं रहना । तब परमात्मा के गुण आत्मा में स्वतः प्रकट होने लगते हैं । अन्तःकरण से प्रार्थना करने वाले प्रार्थी को प्रार्थना के शब्दों का उच्चारण करते-करते इतना भावमय बन जाना चाहिए कि उसके रोंगटे खड़े हो जाएँ। अगर प्रभु की महिमा का गान करे तो पुलकित हो उठे और अपने दोषों का पिटारा खोले तो रुलाई आ जाए। समय और स्थान का ख्याल भूल जाए, सुधबुध न रहे। ऐसी तल्लीनता, तन्मयता और भावावेश की स्थिति जब होती है तभी सच्ची और सफल प्रार्थना होती है। ऐसी तन्मयता की स्थिति में मुख से निकला शब्द और मन का विचार वृथा नहीं जाता। जब शान्त, स्वच्छ और जितेन्द्रिय होकर प्रार्थी प्रार्थना करता है, तभी ऐसी अपूर्व स्थिति उत्पन्न होती है । प्रार्थना का प्राण भक्ति है। जब साधक के अन्तःकरण में भक्ति का तीव्र उद्रेक होता है, तब अनायास ही जिह्वा प्रार्थना की भाषा का उच्चारण करने लगती है, इस प्रकार अन्त:करण से उद्भूत प्रार्थना ही सच्ची प्रार्थना है। वीतराग का स्मरण करेंगे तो अन्त:करण में जो राग का कचरा भरा हुआ है, वह कचरा दूर होगा और वीतरागता प्रकट होगी। यह प्रत्यक्ष अनुभव भी है कि पानी में छोटी सी जड़ी-निर्मली डाल दी जाती है तो उसके संयोग से पानी निर्मल हो जाता है। निर्मली जड़ी रूपी जड़ पदार्थ की संगति जब पानी को साफ कर देती है तो अनन्त शक्तिशाली विशुद्ध चैतन्य वीतराग की संगति से आपके मन का पानी गन्दा नहीं रह सकता। अगर गंदा रहता है, तो समझें कि आपने इस दवा का पूरी तरह से प्रयोग नहीं किया है। जिन्हें सच्चे सुख की झांकी नहीं मिली है और इस कारण जो विषय-जन्य सुखाभास को ही सुख समझे हुए हैं, उनकी बात छोड़िये, परन्तु जिन्हें सम्यग्दृष्टि प्राप्त है और जो विषय-सुख को विष के समान समझते हैं और आत्मिक सुख को ही उपादेय मानते हैं जो वीतराग और कृत-कृत्य बनना चाहते हैं, निश्चय ही उन्हें कृतकृत्य और वीतराग देव की और उनके चरण चिह्नों पर चलने वाले एवं उस पथ के कितने ही पड़ाव पार कर चुकने वाले साधकों-गुरुओं की ही प्रार्थना करनी चाहिये । देव का पहला लक्षण वीतरागता बतलाया गया है- 'अरिहन्तो मह देवो ।' 'दसट्ट दोसा न जस्स सो देवो ।' • राग-द्वेष अज्ञान आदि १८ दोष जिनमें नहीं हैं वे देव हैं। जिनकी प्रार्थना करने से हम सदा के लिये आकुलता से मुक्त हो सकते हैं और जिनकी प्रार्थना हमें तत्काल शान्ति प्रदान करती है, वे ही हमारे लिये प्रार्थ्य हैं और वे अरिहन्त तथा सिद्ध ही हो सकते हैं । वहाँ प्रार्थना के असफल होने का कोई खतरा नहीं है, क्योंकि एक क्षण के लिये भी अगर हमारा चित्त वीतराग देव में तल्लीन हो जाता है, तो निश्चय ही उम्र तल्लीनता के अनुरूप फल की प्राप्ति होगी, किन्तु सरागी देव की सांसारिक पदार्थों के लिये की जाने वाली प्रार्थना में यह बात नहीं है। • प्रार्थी को प्रार्थ्य के अनुरूप ही वेष और व्यवहार बनाना पड़ता है, उसके साथ अधिक से अधिक साम्य स्थापित करने का प्रयत्न करना होता है । किन्तु इस प्रकार के प्रयत्न में यदि हार्दिकता न हुई और निखालिस दम्भ ही हुआ तो प्रायः अनुकूल प्रभाव पड़ने की कम और प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की अधिक संभावना रहती है । हार्दिकता पूरी है तो सफलता की आशा भी पूरी की जा सकती है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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