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________________ ४१८ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं से सहयोग व सम्मान मिलता रहता था। धार्मिक वात्सल्य के कारण उस समय लोगों को अभाव, खिन्नता और दीनता का शिकार नहीं होना पड़ता था, क्योंकि धर्म का सम्बन्ध सभी सम्बन्धों से श्रेष्ठ उच्च व अधिक महत्त्व का माना जाता था। अत: लोगों में सहज ही धर्म के प्रति आकर्षण व प्रेरणा जागृत होती रहती थी। आज का जैन समाज विभिन्न वर्गों एवं जातियों में बंटकर पारस्परिक द्वेष और कलह का शिकार हो गया है। धर्म के नाम पर की जाने वाली आज की सेवा तथा वात्सल्य भाव संकीर्ण और सीमित बन गया है। लोगों को धार्मिक सम्बन्ध से जो वात्सल्य व सेवा पहले प्राप्त होती थी, वह आज नहीं मिल पाती है। वत्सलता व उदारता जो धर्म के प्रसार व विस्तार के मुख्य कारण में से है, उसकी कमी से आज चाहिए जैसा धर्म का विस्तार नहीं हो पा रहा है। साधु या श्रावक आज अजैनों को समझायें कि जैनधर्म मानव मात्र के कल्याण का मार्ग है। इसमें साधना की तीन श्रेणियां निर्धारित हैं। जो व्यक्ति आत्मबल की मंदता से व्रत-नियम को धारण नहीं कर सकते, वे भी सरल मन से तत्त्वातत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर पाप को पाप और धर्म को धर्म मानते हुए हृदय से सम्भलकर चलें। ऐसे व्यक्ति सम्यग्दर्शन की प्रथम भूमिका के अधिकारी हो सकते हैं। दूसरे में पाप को पाप समझ कर, उसकी मर्यादा करने वाला यथास्थिति पाप को घटाने वाला देशविरत हो सकता है। तीसरे में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह आदि का सम्पूर्ण त्याग करना है। इसके अधिकारी साधु-सन्त एवं साध्वी वर्ग होते हैं। सम्यग्दर्शी पुरुष जो त्याग नहीं करते हुए भी दोष को दोष मानकर यह श्रद्धा रखता है कि पाप छोड़ने योग्य है, उसके त्याग से ही मेरा कल्याण है, आरम्भ-परिग्रह में रहते हुए भी वह सम्यग्दर्शी जैन कहला सकता है। इस प्रकार अजैन जनों के हृदय में जब हम जैनधर्म के मर्म को गहरे बैठायेंगे तथा अपनी उदारता, सरलता, सदाशयता का प्रभाव उन पर डालेंगे, तभी इस धर्म का अधिकाधिक प्रचार हो सकता है। श्रीमन्तों को चाहिए कि वे अपनी सम्पत्ति का अधिक से अधिक उपयोग धर्म के प्रचार व प्रसार में करें। • त्यागियों को, चाहे कैसी भी विषम स्थिति क्यों न आ जाय, अपने त्याग का तेज एवं तप का ओज नहीं घटाना चाहिए। तत्त्व को सरल करके समझाना और जन साधारण में व्याप्त इस भ्रांति को कि जैनधर्म व्यक्ति विशेष के ही पालने योग्य है, दूर करना आवश्यक है। जन-साधारण को यह बता देना चाहिये कि पाप को पाप मानकर त्यागने की इच्छा वाला कोई भी दयालु गृहस्थ जैन बन सकता है। छत्रपति राजा से लेकर एक मजदूर भी जैनधर्मी हो सकता है। इस प्रकार भ्रांति दूर होने से सामान्य जन भी जैनधर्म की आराधना कर सकेंगे। दूसरी बात, उन्हें त्यागियों के निकट लाने के लिये जैन गृहस्थ अपनी सेवानिवृत्ति बढ़ायें और मिशनरी (धर्म प्रचारक) की तरह जन-साधारण से प्रेम बढ़ावें तो जैनधर्म का प्रचार व विस्तार हो सकता है। प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण का मतलब है पीछे हटना अर्थात् दोषों से हटकर आत्मा को मूल स्थिति में ले आना। 'प्रति' यानी 'पीछे' दोष की ओर जो कदम बढ़ा है, मर्यादा से बाहर आये हुए उन चरणों को पीछे हटाकर मूल स्थान पर स्थापित करना, इसका नाम 'प्रतिक्रमण' है। प्रतिक्रमण करने वाले भाई-बहन को चाहिए कि वे अपने जीवन में लगे दोषों का संशोधन करके आत्मा को उज्ज्वल करें। इसीलिए आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान का विधान भगवान ने श्रावक और साधु सभी के लिए
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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